किसी रिश्ते में हों गर तल्ख़ियाँ हरगिज़ नहीं बेहतर
शजर पर गर हैं सूखी पत्तियाँ हरगिज़ नहीं बेहतर
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बसाने को बसा लो ज़ुर्म की अपनी हसीं दुनिया
मगर बदनाम जो हों बस्तियाँ हरगिज़ नहीं बेहतर
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नुमाइश कर रहे हो जिस्म की अच्छी नज़र चाहो
हुज़ूर ऐसी कभी ख़ुशफ़हमियाँ हरगिज़ नहीं बेहतर
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मुसीबत, मुश्किलें, आफ़ात, चिंता और ग़म भी संग
घरोंदे में घुसी ये मकड़ियाँ हरगिज़ नहीं बेहतर
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नहीं फ़र्ज़न्द को हासिल अगर कुछ काम थोड़े दिन
मिलें उसको हमेशा झिड़कियाँ हरगिज़ नहीं बेहतर
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जलाना दिल किसी का भी कभी अच्छा नहीं होता
नमी आखों में या नम लकड़ियाँ हरगिज़ नहीं बेहतर
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यही अच्छा करें बातें किसी औरत से बा-इज़्ज़त
कसोगे बे-वज़ह गर फब्तियाँ हरगिज़ नहीं बेहतर
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रवैया सख़्त होगा कारगर कहना बड़ा मुश्किल
हदों से बढ़ गई गर सख़्तियाँ हरगिज़ नहीं बेहतर
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दरो दीवार इज़्ज़त के सलामत रख 'तुरंत'अपने
खुली हों बिन ज़रूरत खिड़कियाँ हरगिज़ नहीं बेहतर
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गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत' बीकानेरी |
(मौलिक एवं अप्रकाशित )
Comment
आदरणीय सूबे सिंह सुजान जी आपकी हौसला आफजाई के लिए तहे दिल से शुक्रिया | स्नेह बनायें रखें | सादर नमन |
खूब कहा है बहुत बहुत बधाई
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