(२२१ २१२१ १२२१ २१२ )
दस्तूर इस जहाँ के हैं देखे अजीब अजीब
दुश्मन भी एक पल में बने देखिये हबीब
***
बनती बिगड़ती बात अचानक कभी कभी
बिगड़े नसीब वालों के खुल जाते हैं नसीब
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वादा किया था हम से सजा लेंगे ज़ुल्फ़ में
लेकिन सजा है ज़ीस्त में क्यों आपके रक़ीब
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नज़दीक आज लग रहा होता है दूर कल
जो दूर दूर रहता वो हो जाता है क़रीब
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होता है पर कभी कभी ऐसा भी मो'जिज़ा
बनता ग़रीब बादशा और बादशा ग़रीब
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हैरत है बातिलों की यहाँ चल रही है ख़ूब
सच के नसीब में लिखी क्यों है ख़ुदा सलीब
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औरत शराब ज़र ज़मीँ का जोर हो जहाँ
संतों के ऐसे आप न बनिए कभी अक़ीब
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दरकार है जनाब मुसल्सल हों कोशिशें
दो चार हर्फ़ सीख के बनते नहीं अदीब
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उल्फ़त को तोलने की न कोशिश करें 'तुरंत '
नापे जो प्यार को बनी अब तक नहीं जरीब
***
गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' बीकानेरी
२७/०१/२०१९
शब्दार्थ - मो'जिज़ा =चमत्कार ,बातिलों=झूठों
अक़ीब =अनुयायी ,अदीब=साहित्यकार
जरीब=जमीन मापने की ज़ंजीर
(मौलिक एवं अप्रकाशित )
Comment
भाई Sushil Sarna जी आपकी सराहना के लिए ह्रदय तल से आभार एवं सादर नमन |
हैरत है बातिलों की यहाँ चल रही है ख़ूब
सच के नसीब में लिखी क्यों है ख़ुदा सलीब
वाह आदरणीय बहुत ही बेहतरीन ग़ज़ल पेश की है आपने। इस दिलकश ग़ज़ल के लिए दिल से मुबारकबाद कबूल फरमाएं सर।
आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप' जी ,आपकी स्नेहिल सराहना के लिए ह्रदय तल से आभार | सादर नमन |
आद0 गिरधारी सिंह गहलोत जी सादर अभिवादन। बढ़िया ग़ज़ल मिली पढ़ने को आपके जानिब से, मुबारकबाद कुबुल फरमाएं। इस शेर पर अतिरिक्त तालियाँ
औरत शराब ज़र ज़मीँ का जोर हो जहाँ
संतों के ऐसे आप न बनिए कभी अक़ीब
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