जिस मुल्क में ग़रीब के लब पर हँसी नहीं
तो मान कर चलें कि तरक़्क़ी हुई नहीं
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जुम्लों के दम पे जीत की आशा न कीजिये
चलती है बार बार ये बाज़ीगरी नहीं
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तहज़ीब क़त्ल-ओ-ख़ून की परवान चढ़ रही
लगता है आदमी रहा अब आदमी नहीं
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उम्मीद रहगुज़र कोई मिलने की मत करें
मंज़िल के वास्ते है अगर तिश्नगी नहीं
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चाहें ख़ुशी जो आप तो घर में तलाशिये
बाजार-ए-ग़म में तो कभी बिकती ख़ुशी नहीं
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ताक़त उन्हें दिखाइए करते जो ज़ुल्म हैं
कमज़ोर को सताना तो मर्दानगी नहीं
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मुश्किल में उस बशर का है सफ़र-ए-हयात मान
इंसान जिसको होती है दीदावरी नहीं
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कर ले वुज़ू 'तुरंत' कि गंगा में ले नहा
होगा न पाक दिल में जो पाकीज़गी नहीं
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गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत' बीकानेरी
(मौलिक एवं अप्रकाशित )
Comment
जी,बहतर है ।
आदरणीय Samar kabeer साहेब ,आदाब | आपकी हौसला आफजाई के लिए बहुत बहुत आभार | सुखन -परवरी का अर्थ मैंने
promoting poetry, patronising the good word देखा था उसी हिसाब से प्रयोग कर लिया | वैसे भी इस शेर को हटाना ही ठीक होगा | हालाँकि मैंने इसे कुछ लोग बेबह्र ग़ज़ल के नाम से कुछ भी लिख रहे हैं उनके लिए लिखा था |
जनाब गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत' जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
'ग़ज़लें बग़ैर बह्र के होती न शाइरी
ये हरक़तेँ जनाब सुख़न-परवरी नहीं'
'सुख़न परवरी' का अर्थ,ज़िद,हठधर्मी होता है,ग़ौर करें,और ऊला में 'ग़ज़लें,और शाइरी पर विचार करें ।
जनाब Surkhab Bashar साहेब ,आदाब ,आपकी हौसला आफजाई के लिए तहे दिल से शुक्रिया | मुहब्बत बनाये रखें |
आ. तुरंत जी आदाब बहुत खूब अशआर पढ़वे को मिले
लगता है आदमी रहा....... वाह वा
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