ग़ज़ल (जो वाकिफ़ ही नहीं नामे वफ़ा से)
(मफाई लुन _मफाई लुन _फ ऊलन)
जो वाकिफ़ ही नहीं नामे वफ़ा सेl
लगा बैठा हूँ दिल उस दिलरुबा से l
वो बिन मांगे ही मुझको मिल गए हैं
करूँ कोई दुआ अब क्या ख़ुदा से l
झुका मुंसिफ़ भी ज़र के आगे वर्ना
बरी होता नहीं क़ातिल सज़ा से l
परायों का करूँ मैं कैसे शिकवा
मुझे लूटा है अपनों ने दगा से l
ये है फिरक़ा परस्तों की ही साज़िश
बुझा कब दीप उलफत का हवा से l
वफ़ा की कर न तू उम्मीद कोई
मुहब्बत तू ने की इक बे वफ़ा से l
दूआयें ही हैं वो तस्दीक माँ की
बचाती हैं मुझे जो हर बला से l
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
मुहतरम जनाब समर साहिब आ दाब , ग़ज़ल पर आपकी प्रतिक्रिया और हौसला अफज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया I
जनाब तस्दीक़ अहमद साहिब आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है,बधाई स्वीकार करें ।
'मुहब्बत तू ने की इक बे वफ़ा से'
इस मिसरे में ऐब-ए-तनाफ़ुर देखें ।
जनाब भाई लक्ष्मण धा मी साहिब, ग़ज़ल पर आपकी सुंदर प्रतिक्रिया और हौसला अफज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया I
आ. भाई तस्दीक अहमद जी, सुंदर गजल हुयी है । हार्दिक बधाई।
जनाब आसिफ साहिब आ दाब, ग़ज़ल पसंद करने और आपकी हौसला अफज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया I
जनाब हरि ओम साहिब, ग़ज़ल पसंद करने और आपकी हौसला अफज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया I
जनाब टी ए ख़ान साहब उम्दा ग़ज़ल मुबारकबाद मोहतरम
वाह,वाहह,बहुत सुंदर ग़ज़ल
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