एक बह्र ---दो हमशक़्ल ग़ज़ल
2122--2122--212
रस्म-ए-उल्फ़त है य' ऐसा कीजिए
रात-दिन उसको ही चाहा कीजिए
बदनसीबी का तमाशा कीजिए
आज फिर उसकी तमन्ना कीजिए
यूँ न हरदम मुस्कुराया कीजिए
जब सताए ग़म तो रोया कीजिए
ख़ुद को मसरूफ़ी दिखाया कीजिए
जब कभी बेकार बैठा कीजिए
अच्छा तो 'खुरशीद' जी हैं आप ही
आइए साहब उजाला कीजिए
©खुरशीद खैराड़ी जोधपुर । 9413408422
2122--2122--212
आइने में ख़ुद को देखा कीजिए
फिर किसी चेहरे को रुसवा कीजिए
सरफराज़ी को न रुसवा कीजिए
दिल झुके उसको तो सजदा कीजिए
यूँ न हर मंज़र से शिकवा कीजिए
अपनी आँखों को तो अच्छा कीजिए
जब चराग़ों को बुझाया कीजिए
रौशनी होगी य' वादा कीजिए
रात को दिन कहते हो 'खुरशीद' जी
इस अँधेरे का मगर क्या कीजिए
©खुरशीद खैराड़ी जोधपुर । 9413408422
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
जनाब ख़ुर्शीद खैराड़ी साहिब आदाब, बहुत समय बाद आपकी ग़ज़ल ओबीओ पर पढ़ रहा हूँ ।
ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
हैडिंग में 'हमशक़्ल' को "हमशक्ल" कर लें ।
'ख़ुद को मसरूफ़ी दिखाया कीजिए'
'मसरूफ़ी' कोई शब्द नहीं होता है,देखियेगा ।
'दिल झुके उसको तो सजदा कीजिए'
इस मिसरे को मेरे ख़याल में यूँ होना चाहिए:-
'दिल झुके तो उसको सजदा कीजिए'
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