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जनाब ख़ुर्शीद साहिब आदाब ! सुन्दर रचना की प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें. सादर
आदरणीय खुर्शीद भाई के ग़ज़लें रूहानी खुश्बुओं से तर हुआ करती हैं. येग़ज़ल भी अपवाद नहीं है. दाद पेश है.
लेकिन इस ग़ज़ल के हवाले से एक बात ज़रूर साझा करना चाहूँगा.
जब ग़ज़ल की बहर सिमेट्रिक रुक्नों पर हो, जैसी कि इस ग़ज़ल की है जहाँ फ़ाइलातुन की दो आवृति है, वहाँ शिकस्ते ना’रवा के प्रति चौकस रहना चाहिए. वर्ना लयभंगता का दोष वाचन के आड़े आता है.
उदाहरणार्थ, निम्नलिखित मिसरों को लिया जाय -
प्यार का इज़हार कर दूँ
दर्द अब भाने लगा है
कर लिया मशरूफ ख़ुद को................ मसरूफ़
ज़िन्दगी तुझको कहा है
वो मिले 'खुरशीद' तुझको
इन सभी मिसरों में शिकस्ते ना’रवा का दोष है. और क्रमशः इज़हार, भाने, मसरूफ़, तुझको, खुरशीद जैसे शब्दों को बहर में रहने और गेयता को निभाने के लिए दो भागों में तोड़ना पड़ रहा है.
विश्वास है, मैं समझा पाया.
शुभेच्छाएँ
जनाब खुर्शीद साहब,
बेहतर लहजे के साथ बेहतर ग़ज़ल. दाद के साथ मुब्नारकबाद.
सादर
जनाब खुर्शीद,अच्छी ग़ज़ल हुई है,हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
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