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बातिल को नज़र से ही गिरा क्यों नहीं देते
आईना उसे सच का दिखा क्यों नहीं देते//1
अब ऐब तुम्हारा तो नज़र आने लगा है
अफ़वाह नई कोई उड़ा क्यों नहीं देते//2
क्या बेच नहीं पा रहा अपनी अना को वो
अख़बार कोई उसको पढ़ा क्यों नहीं देते//3
महफ़िल में तमाशा न करो ऐ मेरे मुंसिफ़
क़ातिल तो वहीं पर है सज़ा क्यों नहीं देते//4
क्या प्यार सभी क़ौम से है उसको अभी तक
टीवी पे नई बहस दिखा क्यों नहीं देते//5
वह क़त्ल हुआ आपकी तलवार से तो क्या
इल्ज़ाम उसी पर ही लगा क्यों नहीं देते//6
ग़मगीन भला क्यों हो 'क़मर' ज़ुल्म ओ सितम से
ज़ालिम की कहानी ही मिटा क्यों नहीं देते
//7
--क़मर जौनपुरी
मौलिक अप्रकाशित
Comment
ज़नाब जौनपुरी जी बढ़िया ग़ज़ल कही..सादर
ठीक है,रहने दें ।
मोहतरम,
ऐ मेरे मुंसिफ़, क़ातिल तो वहीं है उसको सज़ा क्यों नहीं देते ।
वाक्य तो यही बन रहा है। भ्रम दूर करने की मेहरबानी करें कि मुन्सिफ एक वचन के साथ देते का प्रयोग कैसे ग़लत है ?
तुम यहां से भाग क्यों नहीं जाते ?
क्या यहां तुम एक वचन के साथ जाते ग़लत होगा ?
बहुत बहुत शुक्रिया मोहतरम रहनुमाई के लिए।
'निगाहों से गिरा क्यों नहीं देते'
ये एक कॉमन बात है,जो कोई भी कह सकता है,इसे उर्दू में सामने की बात या ज़बान की बात कहते हैं,फ़र्क़ हसरत,और बातिल में है,ग़ौर करें ।
हसरत को निग़ाहों...
मोहतरम समर कबीर साहब आदाब।
बहुत बहुत शुक्रिया इस्लाह के लिए।ममनून हूँ आपका।
बातिल को निगाहों से गिरा क्यों नहीं देते,
ये मिसरा हसरत जयपुरी के मिसरे के बहुत क़रीब हो जाएगा-
हसरत को निगाहें से गिरा क्यों नहीं देते। क्या इससे कोई दिक्कत नहीं है?
जनाब क़मर जौनपुरी जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
'बातिल को नज़र से ही गिरा क्यों नहीं देते'
इस मिसरे में 'ही' शब्द भर्ती का है,इसलिए चाहें तो मिसरा यूँ कर सकते हैं:-
'बातिल को निगाहों से गिरा क्यों नहीं देते'
'महफ़िल में तमाशा न करो ऐ मेरे मुंसिफ़
क़ातिल तो वहीं पर है सज़ा क्यों नहीं देते'
इस शैर में शुतरगुरबा दोष है,'मुंसिफ' एक वचन और रदीफ़ बहुवचन,ग़ौर करें ।
4
'क्या प्यार सभी क़ौम से है उसको अभी तक'
इस मिसरे में 'क़ौम' को "क़ौमों" करना उचित होगा ।
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