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वो मक़तल में कैसी फ़ज़ा माँगते हैं ।।
जो क़ातिल से उसकी अदा माँगते हैं ।।
जुनूने शलभ की हिमाकत तो देखो ।
चरागों से अपनी क़ज़ा माँगते हैं।।
उन्हें भी मिला रब सुना कुफ्र में है ।
जो अक्सर खुदा से जफ़ा माँगते हैं ।।
असर हो रहा क्या जमाने का उन पर ।
वो क्यूँ बारहा आईना माँगते हैं ।।
अजब कसमकश है मैं किससे कहूँ अब ।
यहां बेवफ़ा ही वफ़ा माँगते हैं ।।
जिन्हें पीना आया है नजरों से साकी ।
वही होश आते नशा माँगते हैं ।।
उन्हीं को मिली है सजाएं यहां पर ।
मेरे हक़ में जो फैसला माँगते हैं ।।
शज़र सूखते जब कहीं तिश्नगी से।
तो बादल से काली घटा माँगते हैं ।।
मैं दिल कैसे दूँ खेलने के लिए अब ।
जरा सोचिए आप क्या माँगते हैं ।।
करो कुछ तो उनपे भी नज़रे इनायत ।
तुम्हारे लिए जो दुआ माँगते हैं ।।
लगी हाथ उनको ही मायूसियां तब ।
तेरे दिल का जब रास्ता माँगते हैं ।।
यकीनन वही लोग होंगे सितमगर।
जो रिश्ता यहाँ जिस्म का माँगते हैं ।।
डॉ नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित
Comment
आ0 गुरुदेव कबीर साहब हार्दिक आभार ।
जनाब नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है,बधाई स्वीकार करें ।
'अजब कसमकश है मैं किससे कहूँ अब'
इस मिसरे में 'कसमकश'
को "कशमकश" कर लें ।
आ0 तेजवीर सिंह साहब हार्दिक आभार
आ0 ब्रजेश कुमार ब्रज साहब हार्दिक आभार
आ0 सुशील शरण साहब तहेदिल से बहुत बहुत शुक्रिया ।
हार्दिक बधाई आदरणीय नवीन मणि जी।बेहतरीन गज़ल।
यकीनन वही लोग होंगे सितमगर।
जो रिश्ता यहाँ जिस्म का माँगते हैं ।।
वो मक़तल में कैसी फ़ज़ा माँगते हैं ।।
जो क़ातिल से उसकी अदा माँगते हैं ।।
जुनूने शलभ की हिमाकत तो देखो ।
चरागों से अपनी क़ज़ा माँगते हैं।।
वाह आदरणीय नवीन जी वाह जवाब नहीं आपकी खूबसूरत अहसासों का। इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए दिल से बधाई कबूल फरमाएं सर।
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