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ख़ैरमक़दम हमारा हुआ तो हुआ ।
वार फिर. कातिलाना हुआ तो हुआ ।।
फर्क पड़ता कहाँ अब सियासत पे है ।
रिश्वतों पर खुलासा हुआ तो हुआ ।।
ये ज़रुरी था सच की फ़ज़ा के लिए ।
झूठ पर जुल्म ढाना हुआ तो हुआ ।।
आप आये यहाँ तीरगी खो गयी ।
मेरे घर में उजाला हुआ तो हुआ ।।
हिज्र के दौर में हम सँभलते रहे ।
आपके बिन गुजारा हुआ तो हुआ ।।
मुझको मालूम था तीर तरकस में है।
आप का मैं निशाना हुआ तो हुआ ।।
फिक्र उनको नहीं दिल पे गुजरेगी क्या ।
जुल्म इक आशिकाना हुआ तो हुआ ।।
याद आईं हैं जब उसकी रानाइयाँ ।
इश्क़ पर फिर तराना हुआ तो हुआ ।।
कैसे कह दूं भला बेवफा मैं उसे ।
वक्त पर जो सहारा हुआ तो हुआ ।।
कोई परवा न कीजै ज़माने की अब ।
वस्ल का इक इशारा हुआ तो हुआ ।।
छोड़ दें कैसे हम इश्क़ की राह को ।
हुस्न पर दिल दिवाना हुआ तो हुआ ।।
डॉ नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित
Comment
आ0 समर कबीर साहब सादर नमन के साथ आभार
आ0 बृजेश कुमार ब्रज जी हार्दिक आभार
बहुत ही बढ़िया ग़ज़ल आदरणीय त्रिपाठी जी..
जनाब डॉ. नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है,बधाई स्वीकार करें ।
'मुझको मालूम था तीर तरकस में है'
इस मिसरे में 'तरकस' को "तरकश" कर लें ।
आ0 तेजवीर सिंह साहब हार्दिक आभार ।
आ0 सुशील शरण साहब हार्दिक आभार। तहे दिल से शुक्रिया।
हार्दिक बधाई आदरणीय नवीन मणि जी।बेहतरीन गज़ल।
फर्क पड़ता कहाँ अब सियासत पे है ।
रिश्वतों पर खुलासा हुआ तो हुआ ।।
ख़ैरमक़दम हमारा हुआ तो हुआ ।
वार फिर. कातिलाना हुआ तो हुआ ।।
फर्क पड़ता कहाँ अब सियासत पे है ।
रिश्वतों पर खुलासा हुआ तो हुआ ।।
वाह जनाब वाह बहुत खूब .... सियासत के पैरहन को खूब उधेड़ा है आपने .. इस ग़ज़ल के लिए दिल से बधाई आदरणीय नवीन जी ।
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