हाय क्या हयात में दिखाए रंग प्यार भी
इस चमन में साथ साथ फूल भी हैं ख़ार भी
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देखते बदलते रंग मौसमों के इश्क़ में
हिज्र की ख़िज़ाँ कभी विसाल की बहार भी
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इंतज़ार की घड़ी नसीब ही नहीं जिसे
क्या पता उसे है चीज़ लुत्फ़-ए-इंतिज़ार भी
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कीजिये सुकून चैन की न बात इश्क़ में
इश्क़ में क़रार भी है इश्क़ बे-क़रार भी
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चश्म इश्क़ में ज़ुबान का हुआ करे बदल
जो शरर बने कभी कभी है आबशार भी
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प्यार एक फ़लसफ़ा है और नैमत-ए-ख़ुदा
रंज़ है इसे बनाते लोग कार-ओ-बार भी
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इश्क़ जो करे जनाब रूह से उसे नसीब
अज्मल-ए-जहान और ज़बीन पर निखार भी
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ख़ौफ़ दिल में है अगर तो दूर इश्क़ से रहें
इश्क़ के नसीब में लिखी गई है दार भी
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प्यार का वक़ार और दबदबा रहे ख़ुदा
इल्तज़ा 'तुरंत' की है वक़्त की पुकार भी
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गिरधारी सिंह गहलोत तुरंत' बीकानेरी |
(मौलिक एवं अप्रकाशित )
Comment
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी ,हौसला आफजाई के लिए शुक्रिया
आदरणीय गिरधारी भाई , खूब सूरत ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाईयाँ
आदरणीय Samar kabeer साहेब ,आपकी इस्लाह बहुत ही पुरअसर है और मिसरे को वाजिब अर्थ देने के लिए आवश्यक भी | संशोधन कर रहा हूँ | सादर आभार एवं नमन | इसी तरह कृपा बनायें रखें |
जनाब गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत' जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
'हिज्र है विसाल भी है वस्ल और है तड़प'
इस मिसरे का शिल्प बहुत कमज़ोर है,आप जो कहना चाहते हैं,बयाँ नहीं हो रहा,इसे बदलने का प्रयास करें ।
'इश्क़ बा-क़रार भी है इश्क़ बे-क़रार भी'
इस मिसरे में 'बा क़रार'शब्द मुनासिब नहीं,मिसरा यूँ कर सकते हैं:-
इश्क़ में क़रार भी है इश्क़ बे-क़रार भी'
'जो शरर बने कभी कभी हैं आबसार भी'
इस मिसरे में 'हैं' को " है" कर लें,और 'आबसार' शब्द ग़लत है,सहीह शब्द है "आबशार"
'इश्क़ रूह से करें फ़क़त उन्हें नसीब हो'
इस मिसरे को यूँ कर लें तो बात साफ़ हो जाएगी:-
इश्क़ रूह से करें जो उनको ही नसीब हो'
'इश्क़ में लिखी नसीब में किसी के दार भी'
इस मिसरे को यूँ कर लें तो बात साफ़ हो जाएगी:-
'इश्क़ के नसीब में लिखी गई है दार भी'
बाक़ी शुभ शुभ ।
आवश्यक सूचना:-
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