लगती हैं बेरंग सारी तितलियाँ तेरे बिना
जाने अब कैसे कटेंगी सर्दियाँ तेरे बिना.
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फैलता जाता है तन्हाई का सहरा ज़ह’न में
सूखती जाती हैं दिल की क्यारियाँ तेरे बिना.
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साथ तेरे जो मुसीबत जब पड़ी, आसाँ लगी
हो गयीं दुश्वार सब आसानियाँ तेरे बिना.
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तू कहीं तो है जो अक्सर याद करता है मुझे
क्यूँ सताती हैं वगर्ना हिचकियाँ तेरे बिना?
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वक़्त लेकर जा चुका आँखों से ख़ुशियों के गुहर
अब भरी हैं ख़ाक से ये सीपियाँ तेरे बिना. .
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निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित
Comment
आ. भाई नीलेश जी, बेहतरीन गजल हुई है । हार्दिक बधाई स्वीकारें।
जनाब निलेश "नूर" साहिब आदाब, "आप आए बहार आई"
बहुत उम्द: ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
हार्दिक बधाई आदरणीय डॉ हृदेश चौधरी जी।लाज़वाब रचना।
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