1222 1222 1222 1222
बुलन्दी मेरे जज़्बे की ये देखेगा ज़माना भी
फ़लक के सहन में होगा मेरा इक आशियाना भी
.
अकेले इन बहारों का नहीं लुत्फ़-ओ-करम साहिब
करम फ़रमाँ है मुझ पर कुछ मिजाज़-ए-आशिक़ाना भी
.
जहाँ से कर गए हिजरत मोहब्बत के सभी जुगनू
वहां पे छोड़ देती हैं ये खुशियाँ आना जाना भी
.
बहुत अर्से से देखा ही नहीं है रक़्स चिड़ियों का
कहीं पेड़ों पे भी मिलता नहीं वो आशियाना भी
.
हमारे शेर महकेंगे किसी दिन उसकी रहमत से
हमारे साथ महकेगा अदब का ये घराना भी
.
न जाने किन ख़्यालों में नहाकर मुस्कुराती है
'रज़ा' उसको नहीं आता है राज़-ए-दिल छुपाना भी
--------
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
जनाब सलीम रज़ा साहिब आदाब,आप ये ग़ज़ल पहले ओबीओ पर पोस्ट कर चुके हैं,और इसके 4थे शैर पर काफ़ी चर्चा भी हो चुकी है,याद करें ।
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online