2122 1212 22
अपनी ज़ुल्फों को धो रही है शब
और ख़ुश्बू निचो रही है शब
oo
मेरे ख़ाबों की ओढ़कर चादर
मेरे बिस्तर पे सो रही है शब
oo
अब अंधेरों से जंग की ख़ातिर
कुछ चराग़ों को बो रही है शब
oo
सुब्ह-ए-नौ के क़रीब आते ही
अपना अस्तित्व खो रही है शब
oo
दिन के सदमों को सह रहा है दिन
रात का बोझ ढो रही है शब
___________________
"मौलिक व अप्रकाशित
बहरे खफ़ीफ मुसद्दस मख़बून
Comment
जनाब सलीम रज़ा साहिब आदाब, अच्छी ग़ज़ल हुई है,बधाई स्वीकार करें ।
जनाब सलीम रज़ा साहिब, गज़ब के एहसास से सजी उम्दा ग़ज़ल के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं I
आद0 सलीम साहब सादर अभिवादन। ग़ज़ल पर आपको दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ
अपनी ज़ुल्फों को धो रही है शब
और ख़ुश्बू निचो रही है शब
oo
मेरे ख़ाबों की ओढ़कर चादर
मेरे बिस्तर पे सो रही है शब
आदरणीय सलीम रजा रीवा साहिब , आदाब। ... गज़ब के अहसास पिरोये हैं आपने ग़ज़ल में । आपकी कल्पना और कलम को सलाम। दिल से मुबारकबाद कबूल फरमाएं सर।
आदरणीय सलीम रज़ा साहब, आदाब. सुन्दर ग़ज़ल की प्रस्तुति पे बधाई क़ुबूल करें. सादर.
आदरणीय सलीम जी को सादर नमस्कार, बहुत बढ़िया ग़ज़ल हुई, बधाई आपको
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