फूलो की
वादियों से गुजरते हुए
तमाम खिली रौनकों के बीच
हठात वह
मन को खींच लेता है
एक अदना सा फूल
जिसके आगे
हो जाते है
आसमान के सितारे फीके
नीरस लगते है
प्रकृति के सारे उपादान
बेचैन मन को
तब निखिल ब्रह्मांड में
यदि कुछ भाता है
तो सिर्फ वही
अदना सा फूल
बन जाता है जब
अपनी सहजता और सादगी में
साधारण सा वह
अपने ही अस्तित्व को
तलाशती किसी
एकाकी निगाह
का लक्ष्य
होने लगता है तब
हवा की लहरों पर नर्तन
मन हो उठता है
महक भरा बादल
नही मानते प्राण
फिर कोई अनुशासन
वादियों से गुजरते हुए
चीख उठती है
मेरी आत्मा-
“तुम मेरे हो “
और स्तब्ध हो उठता है
वह अदना सा फूल
(मौलिक/अप्रकाशित )
Comment
जनाब डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी आदाब,अच्छी रचना हुई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
वादियों से गुजरते हुए
चीख उठती है
मेरी आत्मा-
“तुम मेरे हो “
और स्तब्ध हो उठता है
वह अदना सा फूल
.... वाह आदरणीय अंतर्मन के भावों का एक अदना सा फूल के साथ सम्बन्ध चित्रित किया है , अद्भुत,और अनुपम है। इस भावात्मक सृजन के लिए दिल से बधाई आदरणीय डॉ गोपाल जी। सादर ...
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