छोड़ गये थे केवट जिन को तूफानी मझधारों पर
साहिल वालो उनसे पूछो क्या बीती दुखियारों पर।१।
हम जैसों की मजबूरी थी हालातों के मारे थे
कहने वाले खुदा स्वयम् को नाचे खूब इशारों पर।२।
आग जलाकर मजहब की नित सबने जो तैयार किये
सच में हर पल देश हमारा बैठा उन अंगारों पर।३।
माग रहे हैं तोड़ के घर को नित हिस्से का कोना सब
कौन समझ पायेगा कितनी चोट पड़ी आधारों पर।४।
आप समझ जाते गर पीड़ा जो दी थी बँटवारे ने
लौट न आते ओढ़ धर्म को आजादी के नारों पर।५।
असली नकली सत्य झूठ की यूँ मुश्किल पहचान हुई
मन की पीड़ा आकर सूखी सबके ही रुखसारों पर।६।
क्या होगा दुनिया का बोलो जब हैं सारे सत्य मरे
बात कौम की फिर से भारी मिट्टी के आभारों पर।७।
***
मौलिक.अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
Comment
आ. भाई विजय निकोर जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति और स्नेह के लिए आभार ।
मित्र, आपकी रचना मन के बहुत पास आई है। आनन्द आ गया पढ़ कर। हार्दिक बधाई, मित्र लक्ष्मण जी।
आ. भाई प्रदीप देवीशरण भट्ट जी, सादर अभिवादन। गजल को मान देने के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
आ. भाई रवि भसीन 'शाहिद' जी, सादर अभिवादन। गजल को मान देने के लिए आभार।
आ. भाई तेजवीर जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति और प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद।
आ. भाई आशुतोष जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति और प्रशंसा के लिए आभार। सामान्य अर्थ में मझधार में ही होता है । पर मैंने यहाँ उसे तूफानी धार के भरोसे छोड़ने के संदर्भ में लिया है अतः पर का प्रयोग किया है । ज्यादा स्पष्ट करने के लिए शायद
' झट तूफानी धारों पर' लिखना था । धन्यवाद।
बेहतरीन गज़ल हुई लक्ष्मण जी, बधाई
आदरणीय मुसाफ़िर भाई, बहुत बढ़िया ग़ज़ल हुई है, बधाई स्वीकार करें! आपकी ग़ज़ल में मौजूदा दौर के हादसों की तरफ़ बहुत अच्छे इशारे और नसीहतें हैं।
हार्दिक बधाई आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'जी।बेहतरीन गज़ल।
आप समझ जाते गर पीड़ा जो दी थी बँटवारे ने
लौट न आते ओढ़ धर्म को आजादी के नारों पर।५।
आदरणीय भाई लक्षमण जी बहुत ही उम्दा रचना है / इस रचना के लिए हार्दिक बधाई / बैसे मझधार में हमेशा सुना था मझधार पर के प्रयोग पर थोडा असमंजस की स्थिति में हूँ / नव बर्ष की भी हार्दिक शुभकामनाएं सादर
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