स्वप्न-मिलन
रात ... कल रात
कटने-पिटने के बावजूद
बड़ी देर तक उपस्थित रही
नींद के धुँधलके एकान्त में
पिघलते मोम-सा
कोई परिचित सलोना सपना बना
टूटा, बना, फिर टूट गया
बार-बार उस टूटे को मैं बनाती रही
सपने में घिरती शाम की लालिमा में
मेरे स्नेह से बंधे तुम आते रहे
तृप्ति की दीप्ति-सी मैं मुस्कराती रही
काश ...
वह रात
रात न होती
और ...
यदि वह रात ही थी तो काश
उस एक रात
बस उस एक रात ही सही
मैं मोमबत्ती-सी जलती
तुममें पिघलती
लुप्त हो जाती
कि जैसे संबंध-सूत्र को जोड़ते
हमारे बीच के वह कितने वर्ष
कभी बीते ही नहीं थे
सुनो
आत्मीयता की उष्मा में
मेरी रातों के पहरों को संवारते
याद आते हो, बहुत याद आते हो तुम
परन्तु अब न जाने क्यूँ
दीपक की फीकी बुझती लौ में
काले-काले मेघ-सी रुकी इन रातों में
संचित स्मृतियों को इस आसानी से जीना
मेरे लिए सौंदर्य-उल्लास भी है
मर्मांतक वेदना भी है
कि जैसे स्मृतियों के खुले आंगन में हर रोज़
दूर-दूर से पास तक फैली
जलती हुई आग है
मेरे सपने में भी तुम्हारा
ठहर न पाना
यह मेरा गुनाह सही
पर सुनो, मेरे प्यार
हो सके तो इस बार
बस एक बार
तुम आ कर न जाना
-------
-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
रचना की सराहना के लिए हृदयतल से आभार, मित्र भुपेन्द्र जी
Nice
भाई लक्ष्मण जी, ओ बी ओ की यह खासीयत रही है कि वह रचनाकारों को प्रोतसाहित रखते हैं। आपसे मिली बधाई के लिए आभारी हूँ, भाई।
आ. भाई विजय निकोर जी, रचना के फीचर्ड होने पर हार्दिक बधाई ।
रचना की सराहना के लिए हृदयतल से आभार, मित्र लक्ष्मण जी।
रचना की सराहना के लिए हृदयतल से आभार, मित्र सुरेन्द्र जी।
आद0 विजय निकोर की सादर अभिवादन। आप काएक अलग अंदाज है सृजन का,, मजा आता है आपकी रचनाओं का रसास्वादन करने में। इस बेहतरीन सृजन पर बहुत बहुत बधाई।
आ. भाई विजय निकोर जी, सादर अभिवादन। अच्छी भवप्धन रचना हुई है । हार्दिक बधाई ।
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