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कच्चा ये माटी का घर छोड़ता हूँ----Gazal

22 122 122 122

दर पर तुम्हारे बसर छोड़ता हूँ।

लो मैं तुम्हारा नगर छोड़ता हूँ।।

क्या फ़र्क है, ग़र है धड़कन तुम्हीं से।

मैं ज़िन्दगी की बहर छोड़ता हूँ।।

चिंता नहीं कर न आऊँगा मिलने।

कच्चा ये माटी का घर छोड़ता हूँ।।

तुमको नज़र लग न जाये किसी की

काज़ल ये दिल भस्म कर छोड़ता हूँ।।

खुद पे तुम्हारा यकीं कम न होये।

तुमको ग़ज़ल में अमर छोड़ता हूँ।।

मौलिक-अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on July 11, 2016 at 3:11pm
मित्र मनोज जी सादर आभार।
Comment by TEJ VEER SINGH on July 10, 2016 at 6:50pm

हार्दिक बधाई आदरणीय पंकज जी! सुंदर गज़ल !

Comment by Samar kabeer on July 10, 2016 at 6:23pm
जनाब पंकज कुमार मिश्रा जी आदाब,ग़ज़ल अच्छी है, दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।
पहले और दूसरे शैर में 'शहर'और 'बहर'क़ाफ़िया मेरे हिसाब से ठीक नहीं,क्योंकि सही शब्द है'शह्र'',बह्र'
चौथा शैर कुछ और समय चाहता है,'लेकिन'शब्द से ऊला मिसरे की शुरुआत हुई है जबकि ये अंतिम शब्द होना चाहिये, दोनों मिसरों में रब्त भी नज़र नहीं आता,उसकें नीचे ब्रेकिट में जो मिसरा लिखा है उसमें 'अक्स'होना चाहिये ।
Comment by मनोज अहसास on July 10, 2016 at 3:01pm
प्रस्तुति की हार्दिक बधाई मित्र
सादर

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