(१)
शक्तिशाली खूब बनो,साहस हो भरपूर.
विनम्रता के भाव ही,मन में रहे प्रचूर.
मन में रहे प्रचूर ,सादगी का गहना हो.
अपनी जरुरत की सरहद में ही रहना हो.
कहता है अविनाश,बढ़ेगी तब खुशहाली.
जीवन अपना और बनेगा शक्तिशाली.
(२)
भाई से भाई टकरा के होते है बरबाद.
दुश्मन के सारे मंसूबे हो जाते आबाद.
हो जाते आबाद,सभी तुम पर हंसते है.
टूटा घर दिखलाकर सब फिकरे कसते हैं.
कहता है अविनाश रोकिये जगत हंसाई
घर का झगडा घर में ही निपटाओ भाई.
(३)
मौसम करवट बदल रहा ,भली लग रही धूप.
परिवर्तन है परिधानों में ,मौसम के अनुरूप.
मौसम के अनुरूप, मनोहर कपड़े आये.
मफलर,स्वेटर,शाल बदन पर रंग जमाये.
कहता है अविनाश,मानिये बात ये हरदम.
साथ समय के बदलो,जैसा बदले मौसम.
अविनाश बागडे.
Comment
कुण्डलिया = दोहा, रोला, रोला ...
अब जरा अपनी कुण्डलिया को परखें भाई जी. मैं भी दिलबाग़जी की बातों को स्वीकारता हूँ.
अविनाश बागडे जी
तीन कुंडलियां खूब र्ही जी!
bahut shaandar, sashakt, prernadaai kundliyan.......vaah
aabhar aadarniy Dilbag ji...Raj bundeli ji.
सुंदर कहन
शिल्प पक्ष में कुछ गडबड दिख रही है , सुधीजनों के मत का इंतजार है , तभी शंकाओं का समाधान होगा
वाह,,,,,,,,,,,पूरी तरह से परिभाषित कुण्डली,,,,,,,,काबिलॆ-तारीफ़ हैं तीनॊं कुण्डली,,,,,,
बधाई स्वीकार करियॆ,,,,,,,,,,,,,,,,
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