एक अलसाई सी सुबह थी, सब काम निबटा कर बस बैठी ही थी मैं मौसम का मिजाज लेने। कुछ अजीब मौसम था आज का, हल्की हल्की बारिश थी जैसे आसमान रो रहा हो हमेशा की तरह आज न जाने क्यो मन खुश नहीं था बारिश को देखकर, तभी मोबाइल की घंटी बजी, दीदी का फोन था ‘माँ नहीं रही’। सुनकर कलेजा मुह को आने को था दिल धक्क, धड़कने रुकने को बेचैन, कभी कभी हम ज़ीने को कितने मजबूर हो जाते है जबकि ज़ीने की सब इच्छाएँ मर जाती है। मेरी माँ मेरी दोस्त मेरी गुरु एक पल में मेरे कितने ही रिश्ते खतम हो गए और मैं ज़िंदा उसके बगैर जिसके बगैर ज़िंदगी की कल्पना भी करना मुश्किल है, सच कहा है किसी ने, ’कोई भी इंसान अकेले कभी नहीं मरता उसके साथ मरते है बहुत सारे लोग मगर थोड़ा थोड़ा’।
माँ ने अपने अंतिम समय में एक चिट्ठी लिखी थी मुझे, उसी को खोल फिर से पड़ने लगी, आँसुओ से भीगा मेरा चेहरा बस माँ को महसूस करना चाहता था,
प्यारी बेटी
तुम हमेशा अपने पास बुलाती रहती हो और मैं कभी आ नहीं पाती मुझे पता है बेटा की तुम मुझसे नाराज तो नहीं होंगी पर इस बात से दुखी जरूर हो। मैं क्या करू तुम्हारे पापा की देखभाल इतनी जरूरी है की उन्हे छोडकर आना मेरे लिए संभव नहीं, पूरी ज़िंदगी अपने सभी फर्ज़ निभाए हैं मैंने बेटा तो अब ज़िंदगी के अंतिम चरण पर उनका साथ कैसे छोडु, सोचती हूँ की अगर कल मुझे कुछ हो गया तो तुम्हारे पापा का ध्यान कौन रखेगा, पूरी उम्र ‘सुहागन रहो’ के आशीर्वाद के साथ तो कट गई, सदा सुहागन रहने के लिए हर व्रत तीज त्योहार पूरी श्रद्धा से किए मैंने पर अब सोचती हूँ की क्या मेरा सदा सुहागन रहना तुम्हारे पापा के लिए हितकर हैं। बड़ा कष्ट होता है सोचकर की मेरे बगैर वो जीवन कैसे काटेंगे, तो अब उनही के लिए ईश्वर से ये प्रार्थना करती हूँ की वो मेरे रहते ही चले जाए मेरे बाद जीवन के कष्टो से उन्हे मुक्ति मिले शायद मेरा समाज इसके लिए मुझे माफ न करे पर तुम माफ कर देना बेटा.
ढेर सारे स्नेह के साथ
तुम्हारी माँ
भीगी आंखे फिर से भर आई, पापा के प्रति माँ का प्यार उन्हे मरने से रोक रहा था। भले ही उन्हे वैधव्य का दुख सहना पड़े। वो पापा के सुख के लिए जीवन भर के संचित विश्वास और मान्यता तक छोडने को तैयार थी। यही बाते एक स्त्री को विशिष्ट बनती है।
हमारे भारतीय समाज के व्रत और त्योहारो के बारे में मैं जब भी सोचती हूँ तो मुझे लगता है की ये केवल हमारे मनोबल को बड़ाने के लिए बनाए गए है इनका कोई भी वैज्ञानिक आधार नहीं है। मनुष्य इस दुनिया मे एक निश्चित अवधि के लिए आता है न कम न ज्यादा।हाँ मगर इन सब बातों का हमारे जीवन पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव तो अवश्य पड़ता हैं और ये हमारी भारतीय संस्कृति का अटूट हिस्सा है जिसके जड़े हमारे समाज मे बड़ी गहराई तक समाई हैं। मेरी माँ जातेजाते भी एक सीख दे गई मुझे की एक औरत का जन्म ही सिर्फ इसलिए हुआ हैं की वो अपने हर रिश्ते को पूरी ईमानदारी से जिये और उनकी खुशी पर अपनी हर खुशी को कुर्बान कर दे।
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आदरणीय राजेश कुमारी जी, इस दिशा में ये मेरा प्रथम प्रयास हैं, इसी प्रष्ठभूमि से प्रेरणा मिली है कृपया मार्गदर्शन करती रहिएगा
उम्र के पड़ाव पर भावनात्मक प्रेम की उत्पत्ति होती है निज स्वार्थ भूलकर एक दूसरे के सुख की कामना करते हैं अद्धभुत होता है वो प्यार वही ईश्वर है वही परमेश्वर है बहुत अच्छी कहानी लिखी है कंही कंही टंकण त्रुटी है दूर कर लें
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