२१२२ २१२२ २१२२ २१२
जिंदगी मेरी कहाँ जाके गई है तू ठहर ॥
ले गई है फिर वहां ,जो छोड़ आया था शहर
है खुदा भी एक ,एक ही आसमां , एक ही ज़मीं
सरहदों पर किस लिए हमने मचाया है कहर
मारता आया है बरसों बाद भी अक्सर हमें ॥
घुल गया था जो दिलों में लकीरो का जहर
भूल कर भी भूल सकता हूँ भला कैसे उसे ,
वो सताए है मुझे यादों में शामो - सहर
वायदा करके नहीं आये अभी तक क्यों भला ,
यूँ अकेला बैठ कर कब तक गिनूँगा मैं पहर ।
सूखी थी दिल की ज़मीं ,आबाद जो फिर से हुई ,
यूँ लगे है छू गई इसको मुहब्बत की लहर ॥
मौलिक / अप्रकाशित
Comment
बहुत बहुत शुक्रिया सोमेश कुमार भाई जी।
हौंसला देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय श्याम नारायण वर्मा जी .......
नजील भाई
बहुत अच्छी गजल कही आपने . सुन्दर .
आ० भाई नाजिल जी हार्दिक बधाई .
दिलकश गज़ल
बहुत सुन्दर भावों से सजी रचना बहुत 2 बधाई आदरणीय |
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