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अपनी पीठ थपथपाना ---डॉo विजय शंकर

कठिन है
बहुत ही कठिन है
हाथ पीछे कर अपनी ही पीठ थपथपाना,
लेकिन....
कुछ लोग थपथपा लेते हैं,
बार बार थपथपाते हैं ,
लगातार थपथपाते हैं ,
खुद, खुश भी हो लेते हैं,
किन्तु भूल जाते हैं कि...
हाथ का प्रयोजन केवल यही नहीं है,
जिंदगी बीत जाती है,
किन्तु नहीं जान पाते,
और न ही कर पाते हैं
हाथों का सही इस्तेमाल,
बस अपनी पीठ थपथपा
खुश होते जाते हैं |
कभी कभी तो सौगातें आती हैं,
और सामने से निकल जाती है,
किन्तु, उनकें हाथ
अपनी ही पीठ थपथपाते रह जाते हैं |
सौगात पकड़ नहीं पाते,
बस इसी में खुश हो लेते हैं कि ...
लो, अपनी तारीफ़ हो गयी,
जन - सम्पर्क सफल हुआ ।

फायदे और भी हैं ,
शरीर-सौष्ठव बना रहता है,
नियमित व्यायाम होता है,
आदमी अपनी तारीफ़ के लिए
किसी का मोहताज नहीं होता,
यह काम वह खुद कर लेता है.
दूसरे का भरोसा बिलकुल नहीं करता,
जन -जीवन में यह काम नियमित जरूरी है,
सर्वोच्च प्राथमिकता पर किया जाता है ||

आदमी का अस्तित्व,
उसका भविष्य,
बल्कि सबकुछ....
बस इसी पर तो टिका है ॥
( जन -जीवन का प्रयोग public life के लिए किया गया है )

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Dr. Vijai Shanker on February 8, 2015 at 11:23pm
आदरणीय सविता मिश्रा जी, रचना पसंद काने के लिए आभार, सादर।
Comment by Dr. Vijai Shanker on February 8, 2015 at 11:20pm
आभार , आदरणीय इंजी o गणेश जी, बागी जी , सहयोग के लिए बहुत बहुत धन्यवाद , सादर।
Comment by savitamishra on February 8, 2015 at 10:15pm

बहुत बढ़िया _/\_सादर


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on February 8, 2015 at 10:02pm

रचना अब अधिक सुगढ़ और सुगठित होकर प्रस्तुत हुई है पुनः बधाई आदरणीय डॉ विजय शंकर जी.

Comment by Dr. Vijai Shanker on February 8, 2015 at 8:38pm
आदरणीय प्रतिभा जी , आपको रचना पसंद आई, अच्छा लगा, आभार, आपकी प्रभावशाली प्रतक्रिया के लिए धन्यवाद, सादर।
Comment by Dr. Vijai Shanker on February 8, 2015 at 6:02pm
आदरणीय इंजीo गणेश जी बागी जी, आपका बहुत बहुत आभार , रचना के भाव पक्ष को स्वीकारने एवं उसके स्वरुप पक्ष को कुछ और कसने में अपना अमूल्य सहयोग देने के लिए , अब यह पुनः प्रस्तुत है , आपका सहयोग सार्थक एवं सराहनीय है , सादर।
Comment by Dr. Vijai Shanker on February 8, 2015 at 12:18am
आदरणीय हरी प्रकाश दुबे जी, रचना आपको पसंद आई, आभार, आपकी बधाई हेतु हृदय से धन्यवाद, सादर।
Comment by Hari Prakash Dubey on February 7, 2015 at 10:54pm

आदरणीय डॉ विजय शंकर सर,कुछ अलग तरह का शिल्प .....जिंदगी बीत जाती है ,
हाथों का सही इस्तेमाल
कर नहीं पाते हैं , बस
अपनी पीठ , थपथपाते हैं ,
थपथपाते जाते हैं |....... सुन्दर  प्रस्तुति हार्दिक बधाई , सादर ! 


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on February 7, 2015 at 3:21pm

आदरणीय डॉ साहब, कविता में निहित तत्व निश्चित ही बेहद भावप्रधान हैं किन्तु कविता और ठोस रूप में पटल पर आनी चाहिए थी, कविता की रुपरेखा हेतु यह मैटेरिअल हो सकती है किन्तु अब इसे कसने की जरुरत है, सादर.

Comment by Dr. Vijai Shanker on February 7, 2015 at 12:21pm
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी, रचना आपको पसंद आई , लेखन सार्थक हुआ , आभार, आपकी बधाई के लिए धन्यवाद , सादर।

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