2122 1122 1122 22/112
ये हमारी है दुआ शाद तू गुलफा़म रहे
दूर ही तुझसे सदा गर्दिश-ए-अय्याम रहे
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सारी दुनिया में तेरे इल्म की महके ख़ुश्बू
जब तलक चाँद सितारें हों तेरा नाम रहे
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इस तरह तेरे तसव्वुर में मगन हो जाऊँ
मुझको अपनों से न ग़ैरों से कोई काम रहे
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जब तेरी दीद को हम शहर में तेरे पहुंचें
अपने दामन से न लिपटा कोई इल्ज़ाम रहे
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तेरी ख़ुशहाली की हरपल ये दुआ करते हैं
तेरे दामन में ख़ुशी सुब्ह रहे शाम रहे
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हर क़दम मेरा उठे तेरी रज़ा की ख़ातिर
मेरे होंटो पे हमेशा तेरा पैगाम रहे
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
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Comment
आदरणीय सलीम रज़ा साहब आदाब,
बहुत अच्छे अश'आरों से सजी बेहतरीन ग़ज़ल । दिली मुबारकबाद क़ुबूल करें । आली जनाब मोहतरम समर कबीर साहब की इस्लाह पर तत्काल प्रभाव से अमल करें तो ग़ज़ल में और निखार आ सकता है ।
जनाब सलीम रज़ा साहिब आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
मतले का सानी मिसरा कमज़ोर है, बदलने का प्रयास करें ।
दूसरे शैर के सानी मिसरे में 'सितारों' की जगह "सितारे" कर लें ।
4थे शैर के ऊला मिसरे में 'पहुंचे' को " पहुंचें" कर लें ।
5वें शैर के ऊला मिसरे में 'ये' की जगह " ही" कर लें ।
भाई सलीम जी , ख़ूबसूरत ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई
गज़ल अच्छी लगी। हार्दिक बधाई, आ० सलीम रज़ा जी।
बहुत ही बेहतरीन ग़ज़ल कही आदरणीय…सभी शेर खूबसूरत
बेहतरीन ग़ज़ल। तहे दिल से बहुत-बहुत मुबारकबाद मुहतरम जनाब सलीम रज़ा 'रीवा' साहिब।
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