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ऊपर क्या है

सुनील आसमान I

तारक , सविता , हिमांशु

सभी  भासमान I

बीच में क्या है ?

अदृश्य ईथर

कल्पना हमारी I

क्योंकि

ध्वनि और प्रकाश

नहीं चलते  बिना माध्यम के

वैज्ञानिक सोच है सारी I 

नीचे क्या है ?

सर ,सरि, सरिता, समुद्र, जंगल, झरने

उपवन में है पंकज, पाटल ,प्रसून

आते है मिलिंद, मधु-कीट, बर्र

तितलियाँ रंग भरने I 

चारो ओर मैदान, पठार .पर्वत, प्रस्तर

घाटी, गह्वर, उपत्यिकाये

खेत-खलिहान, झाड़ी, वनस्पतियाँ, पेड़ –पौधे,

बालियां पवन-घात से लहराये I       

इधर घर-घरौंदे, मकान, झोपडी

खोली, बस्ती, नगर, महानगर

मेंड़, गली-गलियारा, पथ, डगर I

असंख्य जीव, घरेलू ,पालतू ,

काम में आनेवाले और हिंस्र जीव

सबसे अलग एक वह

मेधा से क्रियमाण ------

है कही कोई साम्य ?

विषमताओ से भरा है यह  

सम्पूर्ण जगत, समूचा ब्रह्माण्ड

तो क्या यह है वह पहला और शाश्वत कोलाज

जिसे ईश्वर ने बनाया  !

.

मौलिक/अप्रकाशित

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 21, 2014 at 11:00pm

असंख्य जीव, घरेलू ,पालतू ,
काम में आनेवाले और हिंस्र जीव
सबसे अलग एक वह
मेधा से क्रियमाण ------
है कही कोई साम्य ?
विषमताओ से भरा है यह  
सम्पूर्ण जगत, समूचा ब्रह्माण्ड
तो क्या यह है वह पहला और शाश्वत कोलाज
जिसे ईश्वर ने बनाया  !

आपकी व्यापक सोच से इस कविता का कैनवास इतना विस्तृत हुआ है आदरणीय गोपालजी कि इस सर्वसमाही सृष्टि का अद्भुत स्वरूप उभर कर आया है.
हार्दिक बधाइयाँ इस भावप्रधान रचना के होने पर.
सादर

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 16, 2014 at 8:44pm

प्रिय धामी जी

आपका सादर आभार i

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 16, 2014 at 11:35am

आ0 भाई गोपाल नारायण जी, जिस तरह इश्वर ने ब्रहमांड में प्रथम कोलाज रचा उसी ततरह आपने उस कोलाज को  शब्दों का बेहतरीन कोलाज बनाकर मन मोह लिया । इसके लिए दिल से दाद कबूलें ।

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 16, 2014 at 11:21am

आदरणीय निकोर जी

आपने सत्य कहा है भी और नहीं भी  i प्रक्रति में आये दिन इतने व्यापक परिवर्तन होते है  कि उनका रूप बादलता भी है i बस बात दृष्टि की है i आपने स्पष्ट कर ही दिया है i इस पारखी  नजर को प्रणाम i

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 16, 2014 at 11:17am

आदरनीय  विजय शंकर जी

आपका शत -शत आभार i

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 16, 2014 at 11:16am

महनीया रामानी जी

आपने  अपने स्नेह का ऐसा  प्रदर्शन किया  i  चरण स्पर्श i

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 16, 2014 at 11:13am

आदरणीय करुण जी

आपका आभार ह्रदय से प्रकट करता हूँ

Comment by vijay nikore on July 16, 2014 at 7:05am

यह शाश्वत कोलाज है और है भी नहीं...यदि है तो कब-कैसा दिखता है, हम उसे किस प्रकार अनुभव करते हैं... यह सब निर्भर है  हमारी दृष्टि पर, और यह निर्भर है समय पर और उस समय की हमारी प्रकृति पर। आपने एक बहुत ही अनोखे विषय पर यह अनुपम रचना लिखी है। आपको हार्दिक बधाई, आदरणीय गोपाल जी।

Comment by Dr. Vijai Shanker on July 15, 2014 at 12:52am
आदरणीय डॉ o गोपाल नरायन जी , इस सुन्दर कॉस्मिक कविता के लिए बहुत बहुत बधाई.
Comment by कल्पना रामानी on July 14, 2014 at 10:21pm

बहुत ही ज्ञान वर्धक सुंदर शब्दावली में रची हुई अनंत का सार बाँटती कविता अतुल्य है। आपकी लेखनी को नमन आदरणीय गोपाल नारायण जी॥ 

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