सागर से भी गहरे देखे.
जब-जब ख़्वाब सुनहरे देखे.
नए दौर में नई सदी में,
साँसों पर भी पहरे देखे.
गांधी जी के तीनों बंदर,
अंधे गूँगे बहरे देखे.
अंदर कुछ थे बाहर से कुछ,
हमने जितने चेहरे देखे.
कुछ आँसू मरते आँखों में,
कुछ पलकों पर ठहरे देखे.
नीड़ बनाते देखे पंछी,
पढ़ते नहीं ककहरे देखे
नीचे नंगी भूख बिलखती,
ऊपर झंडे फहरे देखे.
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय Rupam kumar -'मीत' जी सादर नमस्कार
आपकी हौसलाअफजाई के लिए दिल से शुक्रिया
आदरणीय Nilesh Shevgaonkar जी सादर नमस्कार
आपका सुझाव अनुकरणीय है , सादर स्वागत है
आ. बसंत कुमार जी,
अच्छी ग़ज़ल हुई है .. बधाई स्वीकार करें..
मतले में रब्त कम है.. गहरे और सुनहरे में कोई तार्किक समानता नहीं नज़र आती ..
इसे यूँ कर के देखें..
"जब भी ख़ाब सुनहरे देखे
सहरा जैसे ठहरे देखे..."
इस में धूप में तपती सुनहरी रेत और का सम्बन्ध भी है और काफ़िया भी..
यह सिर्फ आग्रह है.. ग़ज़ल के लिए पुन: बधाई
आदरणीय Samar kabeer जी सादर नमस्कार-
अरे कोई बात नहीं , कभी कभी ऐसा हो जाता है, आपकी इस्लाह सदैव अनुकरणीय होती है और बहुत कुछ सीखने को मिलता है
आपका स्नेह सदा मिलता रहे यही कामना है, सादर नमन आपको
मुआफ़ कीजियेगा नज़र कमज़ोर है रदीफ़ देखे की जगह देखो हो गई, आपका मतला जैसा है वैसा ही रखें ।
आदरणीय Samar kabeer जी सादर नमस्कार
आपकी हौसलाअफजाई एवं तरमीम का दिल से शुक्रिया
आपका सुझाव तो बहुत अच्छा है लेकिन अन्य अशआर में निभ नहीं रहा है
'जब तुम ख़्वाब सुनहरे देखो'
शायद
'सागर से भी गहरे देखे.
जितने ख़्वाब सुनहरे देखे' या
जो-जो ख़्वाब सुनहरे देखे' किया जा सकता है
आदरणीय अमीरुद्दीन 'अमीर' जी सादर नमस्कार
आपकी हौसलाअफजाई एवं तरमीम का दिल से शुक्रिया
आदरणीय Deepalee Thakur जी सादर नमस्कार
आपकी हौसलाअफजाई का दिल से शुक्रिया
जनाब बसंत कुमार शर्मा जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें ।
'सागर से भी गहरे देखे.
जब-जब ख़्वाब सुनहरे देखे'
मतले के दोनों मिसरो में रब्त की कमी नहीं,हाँ इसे और साफ़ करने के लिये सानी यूँ किया जा सकता है:-
'जब तुम ख़्वाब सुनहरे देखो'
आदरणीय बसंत कुमार शर्मा जी आदाब, बहतरीन ग़ज़ल हुई है दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ, बस मतले में जब-जब की वजह से रब्त टूट रहा है, जब-जब की जगह जितने करने से रब्त क़ायम हो सकता है। सादर।
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