दोहे बाल दिवस पर
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लेता फिर सुधि कौन है, दिवस मना हर साल।
वन्चित बच्चे जानते, बस बच्चों का हाल।।
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कितने बच्चे चोरते, निसिदिन शातिर चोर।
लेकिन मचता है नहीं, तनिक देश में शोर।।
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भूखा बच्चा रोकता, अनजाने की राह।
बासी रोटी फेंक मत, तेरे पास अथाह।।
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नेता करते देह का, धन के बल आखेट।
कितने बच्चे सो रहे, निसदिन भूखे पेट।।
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बच्चे हर धनवान के, हैं सुख से भरपूर।
निर्धन के सुख खोजने, बन जाते मजदूर।।
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हरती दिनभर की थकन, बच्चों की मुस्कान।
कहते हैं यूँ सन्त जन, वह भी है भगवान।।
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कूड़े में कुछ ढूँढते, बन्चित बच्चे मौन।
है उन के इस हाल का, उत्तरदायी कौन।।
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भारी बस्ता पीठ पर, कह सुख का आधार।
सिर पर सब ने टाँग दी, बच्चों के तलवार।।
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जिन में सब सुख ढूँढते, क्या उन की तकदीर।
कुछ को सुख अतिरेक में, कुछ को केवल पीर।।
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वंचित बच्चों को मिले, शिक्षा का सन्सार।
बाल दिवस का तब कहीं, सपना हो साकार।।
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मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"
Comment
आ. भाई छोटेलाल जी, सादर अभिवादन। दोहों पर उपस्थिति और उत्साहवर्धन के लिए आभार।
आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सादर अभिवादन यथार्थ की कसौटी पर बहुत ही उम्दा दोहे पढ़कर अच्छा लगा सादर शुभकामनाएं
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