नभ पर लकदक चाँद दे, रोटी का आभास
बिन रोटी कब प्रीत भी, करती कहो उजास।१।
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सभ्य जगत में है भले, हर वैज्ञानिक योग
रोटी खातिर आज भी, भटक रहे पर लोग।२।
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भूखे प्यासे प्राण को, बासी रोटी खीर
लगता बस धनहीन को, मँहगाई का तीर।३।
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रोटी ने जिसको किया, विवश और कमजोर।
उसकी सबने खींच दी, हर इज्जत की डोर।४।
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पहली रोटी गाय को, अन्तिम देना स्वान।
पुरखों की इस सीख को, कौन रहा अब मान।५।
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धनवानों ने कर लिया, रोटी का आखेट।
इसीलिए विज्ञान भी, सकता भूख न मेट।६।
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रोटी जो दो जून की, पा लेते सब लोग।
हम भी कहते हो गया, जग में सुख संयोग।७।
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बासी कहकर फेंकता, रोटी को धनवान।
निर्धन रोटी के लिए, तज देता सम्मान।८।
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जिन की रोटी खून में, डूबी नित भरपूर।
मानवता से वो रहे, घर में कोसों दूर।९।
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रोटी का हर एक है, अलग लगाता मोल।
कोई उस को फेंकता, कोई लेता तोल।१०।
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मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
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