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आपका आभार आदरणीया बबीता जी।
लघुकथा
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मौसम
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"ओह्ह् हो...जल्दी जल्दी चलो...कहीं ट्रेन भी न छूट जाए। ...कोई काम ठीक से नहीं होता है तुमसे... पहले ही हड़बड़ी में खाने का टिफिन घर भूल आई हो...अब चलो...गनत्व्य तक भूखे रहो तुम्हारे कारण...कुछ भी खाने को नहीं मिलेगा... वहां पहुंचने पर भी कौन सा खाना तैयार ही मिलेगा जैसे...।।"
बड़बड़ाते हुए उस बुजुर्ग दम्पति ने आखिरकार ट्रेन पकड़ ही ली थी। इतनी देर से गुस्सा निकालते हुए पति जैसे भूख से पत्नी को ही खा जाएंगे। डब्बे में बैठ कर भी खिड़की की तरफ मुंह करके मुंह फुलाए बाहर देखते रहे थे। ट्रेन गति पकड़ चुकी थी। आखिरकार कोई कितनी देर तक खेत, मैदान, पेड़ पौधे, तार खम्बे, नदी नालों को भागते हुए देखता रहे।
हार कर उन्होंने डब्बे में नजर दौड़ाई। सब धीरे धीरे अपनी अपनी बातचीत में मशगूल हो चुके थे। कोई चढ़ते शेयर की बात कर रहा था तो कोई बढ़ती मंहगाई की। एक औरत अपने बच्चों को संभालने में लगी थी। उनके ठीक सामने एक युवा जोड़ा बैठा था। उम्र यही कोई बाईस पच्चीस की होगी। दोनों सारी दुनिया से कटे हुए एक दूसरे में लीन थे। वे दोनों आपस में धीरे धीरे बात कर रहे थे। युवती जब कोई अपनी बात खत्म करती तो भारी पलकें उठा कर युवक की ओर देखने लगती। उसके देखने में सूरज की पहली किरण जैसी चमक भरी हुई होती लज्जा से जैसे हल्के से थरथरा रही हो। युवक जब कोई बात करता तो उसके नेत्र युवती के अंगों को सहलाने जैसे भावों से भर जाते। उनके हर अंग आंख , कान, नाक, अधर, चिबुक सब कुछ अनुपम और मधुर दिखाई दे रहे थे।
युवक की कलाई में घड़ी बंधी थी किन्तु उसने युवती की कलाई को छू कर उसकी घड़ी में समय देखा।
प्रौढ़ पति ने अपनी पत्नी की ओर देखा। वह चुपचाप उदास सी नजरें नीची किए हुए बैठी थी।
उन्होंने धीरे से पत्नी के हाथ को पकड़ते हुए कहा, "अरे कोई बात नहीं।अगले स्टेशन पर कुछ खाने को मंगा लेंगे।"
पत्नी ने भीगी नजरों से उस युवा जोड़े को देखा।
हवा का रुख बदल कर अब मौसम खुशगवार बन गया था।
मौलिक व अप्रकाशित
आदरणीय कनक हरलालका जी आपने प्रतीक रूप में बहुत ही बढ़िया लघुकथा कही हैं। गिरगिट को देख कर गिरगिट किस तरह बदलता है ? इस लघुकथा में बखूबी दर्शाया गया है । हार्दिक बधाई इस लघुकथा के लिए।
हार्दिक आभार आपका कथा पर सकारात्मक टिप्पणी दी आपने.।
आदाब। मनुष्य की उम्र कुछ भी हो। पुरुष और स्त्री के नैसर्गिक (प्राकृतिक) गुण कहीं न कहीं से प्रेरित या इग्नाइट होकर जोश या उभार पर आ जाते हैं सारे ग़िले-शिकवे भूलते-भुलाते हुए। विषयांतर्गत बहुत ही गहराई वाला दिलचस्प सृजन हुआ है। हार्दिक बधाई मुहतरमा कनक हरलाल्का साहिबा। रचना अंतिम भाग में जाकर बहुत बढ़िया असरदार होने लगती है। बेहतरीन समापन के साथ, आपकी बेहतरीन रचनाओं में एक और रचना जुड़ी। दो पीढ़ियों के युगलों के मनोविज्ञान को बढ़िया शिल्प व उभार मिला है।
हार्दिक धन्यवाद आदरणीय..।
प्रकृति में आकर्षण के नियम का अपना अलग ही महत्व है।सुंदर लघुकथा हेतु आपको बधाई,आदरणीय।
हार्दिक बधाई आदरणीय कनक हरलालका जी।पति पत्नी की नौंक झौंक से उत्पन्न एक बेहतरीन लघुकथा।
आदरणीया कनक जी सादर नमन, खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता है। जब मौसम बहार का हो तो कोंपलें फूटती ही हैं, फिर पौधा हो या बड़ा वृक्ष। हार्दिक बधाई इस प्रस्तुति के लिए।
बेहतरीन रचना के लिए बधाई स्वीकार कीजिएगा आदरणीया। बदलते आसपास के हावरे मौसम के साथ बदलना ही समझदारी है!
प्रपंच - लघुकथा -
"दादू आपने कुछ नोटिस किया आजकल?"
"किस बारे में पूछ रही हो बिटिया रानी?"
"आजकल अपने गार्डन में कुछ ज्यादा ही बहार है।भरपूर हरियाली छाई हुई है| ढेर सारे फूल खिले हैं।पक्षियों की भी चहल पहल बढ़ गयी है।ऐसे ऐसे दुर्लभ पक्षी दिख रहे हैं जो पहले कभी नहीं देखे|"
"बिटिया रानी, ऐसा केवल अपने ही गार्डन में नहीं है।कभी छत पर जाकर देखो पूरे शहर के आसपास बहार ही बहार है और हरियाली छाई हुई है।"
"मगर ऐसा अचानक कैसे हुआ और वह भी इतने सालों बाद?"
"बिटिया रानी, इस लॉक डाउन के चलते प्रकृति को सबसे अधिक राहत मिली है।"
"वह कैसे दादू?"
"तुम खुद देखो। आजकल कल कारखाने बंद हैं। मशीनें शांत हैं | हर ओर सन्नाटा है।रेल तथा सड़क तक समस्त यातायात बंद है।"
"तो इससे क्या हुआ?"
"इससे ये हुआ कि वायु प्रदूषण समाप्त, जल प्रदूषण समाप्त और तो और ध्वनि प्रदूषण भी समाप्त।"
"परंतु इससे बहार का क्या संबंध?"
"अरे बिटिया प्रकृति को शांति और शुद्धता से बड़ा सुकून मिलता है।नदी नाले स्वच्छ होते हैं।पशु पक्षी निश्चिंत और निर्भय होकर विचरण करते हैं। हर ओर हरियाली बिखर जाती है।"
"लेकिन दादू इस माहौल में मानव जाति तो और भी अधिक दुखी और परेशान है।"
"यह सब दुख दर्द उसी के घातक पैंतरों और प्रपंचों का परिणाम है।विकास के नाम पर जंगल काट रहे हैं।नदी नालों को नष्ट कर रहे हैं।खेत खलिहान की जगह बड़े बड़े मॉल और इमारतें खड़े कर रहे हैं।"
"तो क्या प्रकृति और मानव दोनों एक साथ प्रसन्न और सुखी नहीं रह सकते?"
"बिटिया सब संभव है लेकिन अति हर चीज की बुरी होती है।"
मौलिक, अप्रकाशित एवम अप्रसारित
आदाब। आपकी यह लघुकथा आपसे अपरिचित पाठकों को भी यह अहसास करा देगी कि आप एक प्रतिष्ठित कथाकार और बालमन-कथा-सृजक हैं। कोरोना वाइरस प्रकोप और महामारी काल की विशिष्ट लॉकडाउन अवधि में मानव जगत का लक्ष्मणरेखा तक सीमित हो जाना ज़मीन से लेकर ओज़ोन परत के सुराख़ तक के लिए फ़ायदेमंद साबित हुआ है। दूसरी तरफ़ इस लघुकथा के कथ्य के अनुरूप मानव जगत को एक कठोर प्राकृतिक दण्ड के साथ एक अभूतपूर्व सबक़ भी मिला है। बालमन के बढ़िया स्वाभाविक सवालों के साथ बेहतरीन शिक्षाप्रद जवाबों से युक्त सभी आयुवर्ग के पाठकों के लिए सृजित इस रचना के लिए हार्दिक बधाई मुहतरम जनाब ओमप्रकाश क्षत्रीय 'प्रकाश' साहिब ... नहीं... जनाब तेजवीर सिंह साहिब! मुझे शंका हो रही थी कि इस बार की गोष्ठी निरस्त या स्थगित हो सकती है, सो विलंब हो गया उपस्थिति दर्ज़ कराने में। रचना भी आज लिखूंगा। कथानक अभी मन में ही है।
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