आदरणीय साथियो,
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"विश्वास"
ओ.बी.ओ. पर लघु कथागोष्ठी का विषय आज फिर मुझे मेरे अतीत की ओर ले गया...तब मैं महज़ चार साल की थी, उस रोज़ पापा के साथ, मैं ज़िद करके बाजार आयी थी। जब पापा दुकान में सामान खरीदने जाते तब स्कूटर की वेवीशीट पर बैठी मैं दुकानों में टंगे खिलौने ताकती। पापा सामान लेकर दुकान से बाहर आए और स्कूटर में चाबी लगाई। मैं झट से नीचे उतर गयी और सामने दुकान पर टंगी लाल फ्राक बाली गुड़िया की तरफ इशारा करते हुए बोली " पापा...उसे भी ले चलो ना।" नहीं बेटा... तुम पर पहले से ही बहुत हैं कहते हुए पापा ने मुझे गोद में उठाकर शीट पर बिठा दिया। इससे पहले की वो स्कूटर स्टार्ट करते मैं फिर नीचे उतर गयी, ऐसा दो-तीन बार हुआ। जब पापा की आखरी वार्निंग पर भी मैं नहीं मानी तो उन्होंने कहा "ठीक है! तो तुम यहीं खड़ी रहो मैं जा रहा हूँ" कहकर उन्होंने स्कूटर स्टार्ट किया और चले गए। मैं अब भी वहीं खड़ी थी... कुछ दूर जाकर पापा वापस आये और बोले " तुम्हें डर नहीं लगा ? तुम रोयीं नहीं ? तब मैं मुस्कुराते हुए बोली, " मुझे पता था आप मुझे छोड़कर नहीं जायेंगे "।
(मौलिक व अप्रकाशित)
आदाब। हार्दिक स्वागत। हमारे जीवन से जुड़े सहज बाल-प्रसंग की याद ताज़ा कराती विषयांतर्गत बहुत बढ़िया रचना हेतु हार्दिक बधाई आदरणीया रक्षिता सिंह जी। कुछ एक टंकण त्रुटियाँ रह गयी हैं। इसे लघुकथा का बेहतर रूप देने हेतु इस पर अभी और काम भी आप करेंगी ही। इसे 'मैं' द्वारा कहने के बजाय पात्रों के कथनोपकथन रूप में भी कहा जा सकता है मेरे विचार से। अन्य सहभागियों की रचनाओं की प्रतीक्षा रहेगी।
आदरणीय उस्मानी जी, सादर प्रणाम ।
मार्गदर्शन करने हेतु ह्रदय से आभार, आपके द्वारा बतायी गयीं बातों को ध्यान में रखकर मैं अगली बार बेहतर लिखने का प्रयास करूँगी।
रक्षिता सिंह जी, वर्तमान स्वरूप में आपकी यह रचना मात्र एक संस्मरण बनकर रह गई है। इसे लघुकथा में ढालने का प्रयत्न करें। टंकण त्रुटियाँ भी बहुत हैं, इन्हें भी दूर करें। इस सद्प्रयास हेतु हार्दिक अभिनंदन स्वीकार करें।
आदरणीय प्रभाकर जी सादर प्रणाम ।
लघुकथा, संस्मरण के रूप में नहीं लिखी जाती इस बात का मुझे ज्ञान ना था। रचना पर प्रतिक्रिया और मार्गदर्शन हेतु ह्रदय से आभार।
अपनी लघुकथा का परिमार्जित रूप देखें,
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चार वर्षीय गुड्डी ज़िद करके अपने पापा के साथ बाज़ार आई थी। जब पापा दुकान में सामान ख़रीदने गए तो वह स्कूटर की बेबीसीट पर बैठी दुकानों में टँगे खिलौने ताकने लगी। पापा सामान लेकर दुकान से बाहर आए और स्कूटर में चाबी लगाई। गुड्डी झट से नीचे उतर गई और सामने दुकान पर टँगी लाल फ़्रॉक वाली गुड़िया की तरफ़ इशारा करते हुए बोली “पापा...उसे भी ले चलो न।”
“नहीं बेटा... तुम पर पहले से ही बहुत हैं।” कहते हुए पापा ने उसे गोद में उठाकर सीट पर बिठा दिया। इससे पहले की वे स्कूटर स्टार्ट करते गुड्डी फिर नीचे उतर गई। ऐसा दो-तीन बार हुआ। जब पापा की आख़िरी वार्निंग पर भी वह नहीं मानी तो वे बोले,
“ठीक है! तो तुम यहीं खड़ी रहो, मैं जा रहा हूँ।” कहकर उन्होंने स्कूटर स्टार्ट किया और वहाँ से चले गए।
गुड्डी वहीं खड़ी रही...
कुछ दूर जाकर पापा वापस आए और पूछा,
“तुम्हें डर नहीं लगा? तुम रोईं नहीं?”
मुस्कुराते हुए गुड्डी ने उत्तर दिया,
“नहीं... क्योंकि मुझे पता था आप मुझे छोड़कर नहीं जाएँगे।"
सधा अंदाज,सुगठित बुनावट।
हार्दिक आभार आ० मनन कुमार सिंह जी.
सादर नमस्कार। गोष्ठी में प्रशिक्षण देता बहुत बढ़िया लघुकथा परिमार्जन। हार्दिक धन्यवाद आदरणीय सर श्री योगराज जी।
हार्दिक आभार उस्मानी भाई जी.
बहुत खूब, बेहतरीन परिमार्जन आदरणीय..
हार्दिक आभार आ० लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी..
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