आदरणीय साथियो,
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बहुत उत्तम लघुकथा है दिव्या शर्मा जी. विषय का नयापन अच्छा लगा. बधाई प्रेषित है. वैसे यदि यह लघुकथा मैं लिखता तो एक बच्चे से किसी बुज़ुर्ग को शिक्षा न दिलवाता, आशा है आप मेरी बात समझ गई होंगीं.
अच्छी लघुकथा लिखी है आपने आदरणीया दिव्या जी बधाई प्रेषित है| आप ने एक वृद्ध को बच्चे द्वारा सम्झईश दिलवाई है वह बाल-हठ प्रतीत हो रहा है परन्तु हठ के माध्यम से वृद्ध की समस्या का हल... बात थोड़ी सी असहज सी लग रही है! बहरलाल बधाई स्वीकार करें |
घर घर की कहानी - लघुकथा -
सत्तर वर्षीय राम सहाय अपने छोटे से कमरे में चहल कदमी कर रहे थे। भूख से बुरा हाल था। आँतें कुलबुला रहीं थीं।
दिन में बहू ने बताया तो था कि, "बाबूजी आज रात खाने में एक आध घंटे की देरी हो जायेगी। राजेश के दो तीन मित्र और उनके परिवार खाने पर आ रहे हैं। पहले उनके लिये खाना बनेगा फिर आपके लिये बनाऊंगी।क्योंकि वह खाना तो आपको चलेगा नहीं। ये लोग तो बहुत तेज मिर्च मसाले खाते हैं।आप को खाना भी गरम चाहिये।”
मैंने भी हामी भर दी थी।सोचा था रोज आठ बजे खाता हूँ आज नौ बजे खा लूंगा। एक घंटे में क्या बिगड़ जायेगा। इतना तो झेल सकता हूँ।
मगर यह क्या अब तो साढ़े ग्यारह बज चुके थे। लेकिन डाइनिंग हॉल में अभी भी क्राकरी और गिलासों के खड़कने की आवाजें आ रही थीं।
बिस्तर पर लेट कर सोने की चेष्टा भी की लेकिन सब व्यर्थ, क्योंकि खाली पेट नींद भी नहीं आती। दो तीन बार पानी भी पिया मगर पानी से तो केवल प्यास बुझती है, भूख नहीं।
हताशा में बार बार दरवाजे से कान लगा कर आहट लेता कि क्या चल रहा है।
कुछ देर के बाद एक खामोशी छा गयी। मन को मजबूत करके धीरे से द्वार खोल कर बाहर निकला। हालांकि बहू ने सख्त हिदायत दी थी कि जब तक वे लोग चले ना जाएँ आप अपने कमरे में ही रहें।
बाहर हॉल में एकदम सन्नाटा पसरा हुआ था। मेन गेट खुला हुआ दिख रहा था।
राजेश और बहू गेट के बाहर अपने मित्रों को विदा करने गये थे। सब लोग अपनी अपनी गाड़ियों के बाहर खड़े हुए हँसी ठट्ठा कर रहे थे। कभी खाने की तारीफ़, कभी बच्चों की तारीफ़, कभी एक दूसरे की साड़ियों और गहनों की तारीफ़।
राम सहाय जी ने देखा दीवार घड़ी साढ़े बारह बजा रही थी। डाइनिंग हॉल में खड़े खड़े बीस पच्चीस मिनट हो गये।
भूख की व्याकुलता से पेट और पीठ एक दूसरे में घुस चुके थे।
अब तक राम सहाय जी की इच्छाशक्ति और सहनशक्ति दोनों ही जवाब दे चुकी थीं।
उन्होंने डाइनिंग टेबल पर पड़े बचे खुचे खाने पर एक नज़र डाली। एक खाली प्लेट उठाई और दो नॉन के टुकड़े और दाल मखनी प्लेट में डाल ली।
जैसे ही प्लेट का खाना उदर में गया। राम सहाय जी को एक अद्भुत त्रप्ति का आभास हुआ।
अब वे अपने बिस्तर पर खर्राटे ले रहे थे।
गेट के बाहर राजेश के मित्रों की गोष्ठी अभी भी बदस्तूर चालू थी।
मौलिक एवं अप्रकाशित
विसंगति उभारती अच्छी कथा।
हार्दिक आभार आदरणीय दिव्या जी।
आदरणीय तेजवीर जी, प्रदत्त विषय को सार्थक करती बढ़िया लघुकथा लिखी है आपने. हार्दिक बधाई. सादर
बहुत अच्छी लघुकथा। एक तीर से दो शिकार, बच्चों की असंवेदनशीलता और भूख। हार्दिक बधाई आपको आदरणीय तेजवीर सिंह जी
हार्दिक आभार आदरणीय प्रतिभा जी।
प्रदत्त विषय से न्याय करती हुई लघुकथा कही है आ० तेजवीर सिंह जी. बधाई स्वीकार करें. वैसे इस लघुकथा का अंत और बेहतर हो सकता था.
प्रदत्त विषय पर अच्छी लघुकथा लिखी है आपने आदरणीय तेज वीर सिंह जी | अंत नहीं जमा | सादर!
काश!
सूनी ऑखों से दीवारों को ताकती… मन की बात सुनने के लिए दो पल का समय तो दूर…. जिससे चलना सीखने वाली वही अंगुली सवाल करने लगी…अतीत की यादें माथे पर उभरकर… नम हुई कोरो को पोछ ही रही कि तभी शाम को अपने डोगी ऐनी को सुबह की सैर से घुमाकर लौटी दृष्टि ने सोफे पर बैठी और अखबार के पन्ने पलटते हुये मेड नैनी को आवाज लगाई।
'ऐनी को अच्छे से दूध उबालकर रोटी को भिगोना,कल बिल्कुल ठंडा दूध रखा था.. समझी! और हाँ…गर्मी बहुत हैं उसके कमरे का एसी खोल देना नहीं तो बीमार हो जाएगा।'
बगल के कमरे में लेटी दृष्टि की बूढ़ी सास ने लाचारगी से कहा, 'बहू जरा मेरी भी चाय गर्म करवा देना… ठंडी हो गई।'
तुनकते हुये पास आकर दृष्टि ने कहा, 'क्या मांजी! इतनी गर्मी में चाय… ज्यादा चाय भी सेहत के लिए खराब होती हैं।'
पास खड़ी मेड को सख्त लहजे से कहा, 'कितनी बार समझाया… दिन-रात एसी चलने से गर्म हो जाता हैं.. कुछ देर के लिए बंद कर अम्मा के लिए खिड़की खोल दिया करो।'
'हां बहू,सही कहती हो .. मुझे भी अपने डोगी के साथ पार्क में घुमाने ले जाया करो.. दिन भर पड़े-पड़े मन उकता जाता है.. बाहर की हवा के साथ और लोगों से….।'
क्रोधित स्वर में समझाते हुये कहा, 'क्या मांजी आप भी बच्चों जैसी जिद करती हो…कही पैर ऊंचे-नीचे रख गया तो बस…परेशानी खड़ी हो जायेगी… कौन करेगा…?'
इतना कहते हुये दृष्टि ऐनी के भौंकने की आवाज सुन कमरे से बाहर निकल गई।
विस्फरित नेत्रों से वो दृष्टि को देखा।ऐनी को दुलारते-पुचकारते …हाथ से खिलाते देख… अपना लरजता हाथ माथे पर रख… दयनीय बेवश निगाहें ऊपर देख सोचने लगी… काश! …
बबीता गुप्ता
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हार्दिक आभार आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी।