आँधियों से क्या गिला .....
2122 2122 2122 212
रूठ जाएँ मंजिलें तो रहबरों से क्या गिला
हो समन्दर बेवफ़ा तो कश्तियों से क्या गिला
टूट जाए घर किसी का ग़र हवाओं से कहीं
वक्त ही ग़र हो बुरा तो आँधियों से क्या गिला
याद आया वो शज़र जिस पर गिरी थी बारिशें
आज भीगे हम अकेले बारिशों से क्या गिला
ज़ख्म यादों के न जाने आज क्यूँ रिसने लगे
दर्द के हों जलजले तो आँसुओं से क्या गिला
ज़िन्दगी के रास्ते हैं आज क्यूँ ख़ामोश से
दे गये अपने दगा तो दुश्मनों से क्या गिला
सुशील सरना / 25-5-22
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
जनाब सुशील सरना जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें I
तलफ़्फ़ुज़ के बारे में जनाब अमीर जी की बात पर ध्यान दें I
आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन। सुन्दर गजल हुई है। हार्दिक बधाई।
आदरणीय सुशील सरना जी, अति सुंदर रचना के लिए बधाई स्वीकार करें।
आदरणीय सुशील सरना जी आदाब, क्या बहतरीन अंदाज़ के साथ ख़ूबसूरत अहसासात से लबरेज़ ग़ज़ल कही है, वाह! मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाएं।
'टूट जाए घर किसी का ग़र हवाओं से कहीं
वक्त ही ग़र हो बुरा तो आँधियों से क्या गिला ... इस शे'र को यूँ कहना उचित होगा -
टूट जाए घर किसी का इन हवाओं से अगर
वक़्त अपना ही न हो तो आँधियों से क्या गिला
सहीह तलफ़्फ़ुज़ - मंज़िलें, गर, शजर, ज़ख़्म, ज़लज़ले, दग़ा ।
आदरणीय सुशील जी, सादर प्रणाम । बहुत ही खूबसूरत पंक्तियाँ हार्दिक बधाई स्वीकार करें।
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