आदरणीय साथियो,
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संसाधनों का श्रम आधारित व समान वितरण समय की आवश्यकता है। साथ ही ऐसी असमानता भविष्य के लिए समाज के लिए गंभीर भय। उत्तम लेखनी और स्पष्ट सन्देश।
सादर अभिवादन
आपका हार्दिक आभार आ.अजय जी।
प्रतिकात्मक शैली की बेहतरीन लघुकथा हुई है मनन जी
भाषा,प्रवाह सभी कुछ उत्तम
आपका हार्दिक आभार आदरणीया नयना कानिटकर जी। आपकी स्नेहिल टिप्पणी मेरे लिए प्रेरक है।
प्रतीकात्मक शैली में बहुत प्रभावशाली सृजन हुआ है आदरणीय मनन कुमार सिंह जी। शीर्षक भी सटीक है। बधाई स्वीकारें।
आदरणीया कल्पना भट्ट जी,आपका दिली आभार।उत्साहवर्धन हेतु भी आभार ग्रहण करें।
स्वीकारोक्ति(जोशीमठ आपदा से प्रेरित )
सादर नमस्कार। वाह। आरंभिक लघु वाक्यों से अंतिम लघु वाक्यों तक परिस्थितियों का पुनरावलोकन कराती विचारोत्तेजक उक्तियाँ... अभिव्यक्तियाँ.... चुनौतियाँ... स्वीकारोक्तियाँ! नये अंदाज़ की शिल्पबद्ध विषयांतर्गत लघुकथा हेतु हार्दिक बधाई। यहाँ क्षेत्रीय भाषाई शब्दों और उनके सरल अर्थों की आवश्यकता थी ही प्रभावोत्पादकता हेतु। हार्दिक बधाई आदरणीया प्रतिभा पाण्डेय जी। भौतिकता में न्यौते हैं, तो आपदाएं भी हैं! समझदारी कब, कहाँ और किस-किस में?
/जोशीमठ आपदा से प्रेरित/... यह कोष्ठक में न भी लिखा जाता, तो भी रचना का कथानक और कथ्य सुस्पष्ट है। क्षेत्रीय भाषा के शब्दों ने पर्याप्त संकेत दिये हैं। यह रचना हमें समझाती/सिखाती है कि समसामयिक गंभीर घटनाओं को 360 अंशीय कोण से विहंगम दृष्टिगत कर व परिस्थितियों और.घटनाक्रम का, परिणामों और नागरिकों की मानसिकताओं/विवशताओं/समझौतों का अध्ययन कर लघुकथा का कथानक कैसे तय करना चाहिए और फ़िर कथ्य क्या होना चाहिए और फ़िर सत्य, यथार्थ और परिकल्पना का गठजोड़ कर लेखनी चल पड़ती है, तो वह स्वयं लघुकथा की किसी विलुप्त होती शैली या नवप्रयोगात्मक शैली को अपना कर अभीष्ट लक्ष्य को साधती हुई पर्याप्त प्रवाह और कसावट में पाठकीय अभिरुचि और जिज्ञासा से नाता जोड़ती हुई वह सफल सम्प्रेषणीयता के दायित्व को बख़ूबी निभाती है।
देखिएगा कि आरंभ होता है इन लघु वाक्यों से .... /मैं कौन हूँ? हूँ जो हूँ!/....... आदि...और समापन पंक्तियों में पाठक को स्पष्ट भी करा दिया जाता है..... /मैं तो बुरी हूँ। आपदा हूँ/...आदि.. से।(हालाँकि, मेरे विचार से/यदि मैं लिखता तो ऐसे कुछ लघु वाक्यों के अंत में मैं पू्र्ण विराम की जगह विस्मयादिबोधक चिन्ह (!) लगाता आत्मकथ्यात्मक अभिव्यक्ति को तनिक अधिक प्रभावशाली बनाने हेतु)। बीच में वाक्यांश आया है ../लौंडे ने ये ही समझदारी का काम किया/.. (यहाँ 'ये ही' की जगह 'यही/ऐसी ही समझदारी से तो काम लिया न!' लिखा जा सकता था मेरे विचार से।) ...और फ़िर इसी तारतम्यता के साथ व्यंगात्मक/तंजदार रूप से बख़ूबी कहा गया है रचना के अंत में पंच रूप में .../पर तुम तो समझदार हो!!/' .. यहाँ अंत में लेखिका ने दो बार विस्मयादिबोधक चिन्ह लगाकर आत्मकथ्यात्मक अभिव्यक्ति को सशक्त सम्प्रेषित कर ही दिया है। हालाँकि एक ही चिह्न पर्याप्त होता।
(यहाँ एक बात और है। यदि क्षेत्रीय भाषा वाले शब्दों की बजाय उनके अर्थ वाले शब्द /भाभी/दादा... रख दिये जायें तो अनर्थ भी नहीं होगा।) बीच में कहीं मठ/पहाड़ी तीर्थ शब्द लाकर 'जोशीमठ' स्थल जैसे स्थलों का संकेत दिया जा सकता था।
रज़्ज़ाक़ (रज्जाक नहीं) और राधेश्याम चरित्रों की गतिविधियों को शामिल कर भी घटना और स्थल का संकेत तो भी दे दिया गया है सर्वधर्मसमभाव और वसुधैव कुटुम्बकम के भारतीय संदेश के इशारे के साथ। ऐसे चरित्रों का हमारी पुण्य भूमि पर निरंतर अभाव होता जा रहा है औद्योगिकीकरण/पर्यटन/भौतिकता की अंधी या विवश दौड़ और होड़ में। बहुत सी परतें खोलती नवप्रयोगात्मक शैली/शिल्प में आपदा के कारण, कारक और परिणामों के साथ 'समझदारी की जद्दोजहद' को सम्प्रेषित करती विचारोत्तेजक बेहतरीन लघुकथा हेतु आदरणीया प्रतिभा पाण्डेय जी को एक बार पुनः हार्दिक बधाई। शीर्षक भी बढ़िया है। बेहतर व नवीन शीर्षक की गुंजाइश तो हमेशा रहती ही है। 'स्वीकारोक्ति' एक ऐसा संदेशवाहक सारगर्भित शब्द वाला शीर्षक भी बन पड़ा है.. जो रचना में कहीं प्रयुक्त नहीं हुआ है। ऐसे शीर्षक वाली लघुकथाओं की भी चुनौतियाँ कुछ लघुकथा आयोजनों में पिछले वर्ष दी गईं थीं न!
रज़्ज़ाक़ (अल्लाह... शब्द का पर्यायवाची है। अतः. रज़्ज़ाक़ ही लिखा जाये, रज्जाक नहीं, तो हम पाठकों को अच्छा लगेगा। (या फ़िर कोई अन्य मुस्लिम नाम यदि वह पात्र 'रज़्ज़ाक़' उस घटना से संबंधित न हो)
भाई उस्मानी जी,निम्नांकित पंक्ति का भाव मैं नहीं समझ पाया:
" ऐसे शीर्षक वाली लघुकथाओं की भी चुनौतियाँ कुछ लघुकथा आयोजनों में पिछले वर्ष दी गईं थीं न!"
सर्वप्रथम इस बिन्दुवार समीक्षा के लिये हार्दिक आभार।
1) क्योंकि //जोशीमठ आपदा से प्रेरित//, शीर्षक का भाग या विस्तार नहीं है इसलिये इसे कोष्ठक में रखना मुझे ठीक लगा।
2) पहाड़ी (कुमाँउनी) शब्दों का प्रयोग कथा में क्षेत्रीयता के 'फील' की आवश्यकता थी।
3) रज्जाक/ रज़्ज़ाक का चरित्र कथा में सर्वधर्मसमभाव जैसे भाव को बलात थोपने के लिये बिल्कुल नही है बल्कि ये लोग उस इलाके की सच्चाई हैं जो सैलानियों को घोड़े पर पहाड़ों की सैर करवाने वालों का लगभग तीन चौथाई हैं । ये लोग कई पीढियों से इसी काम में हैं और फर्राटे से पहाड़ी बोलते हैं । रज्जाक की सही वर्तनी और अर्थ पर यही कहूँगी कि रचना में नाम उसी रूप में हैं जैसे वो उस इलाके में पुकारे जाते हैं ।वस्तुतः रज्जाक रज्जू दाज्यू (बड़ा भाई) है।
4) पहाडों में सैलानियों द्वारा अति दोहन के कारण छोटी बड़ी प्राकृतिक आपदाएँ आम हैं।इस रचना में भी इसी समस्या की तरफ इशारा है, खास जोशीमठ की ही बात नहीं है।
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