पास आ गया है बेहद
जब से चुनाव फिर संसद का
राजनीति की चिमनी जागी
धुँआँ उठा है नफ़रत का
आहिस्ता-आहिस्ता
सारी हवा हो रही है जहरीली
काले-काले धब्बों ने
ढँक ली है नभ की चादर नीली
वोटर बेचारा
मोहरा भर है
पूँजी की हसरत का
धर्म-जाति का शीतल जल अब
धीरे-धीरे फिर गरमाया
बढ़ती रही अगन तो
जल जायेगी मजलूमों की काया
जनता को
अनुमान नहीं है
आने वाली आफ़त का
भगवा हो या हरे रंग का
विष तो आख़िर विष होता है
नागनाथ या साँपनाथ का
मानव ही आमिष होता है
देश अखाड़ा
घर-घर कुश्ती
देख तमाशा ताक़त का
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
विचारणीय ❤
आ. भाई धर्मेंद्र जी, सादर अभिवादन। अच्छा नवगीत हुआ है। हार्दिक बधाई।
आ. भाई सौरभ जी की बात से सहमत हूँ।
नवगीत के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ< आदरणीय धर्मेन्द्र जी.
वोटर बेचारा
मोहरा भर है
पूँजी की हसरत का .. एक सार्थक हामी
जनता को
अनुमान नहीं है
आने वाली आफ़त का ... जनता अनुमान से अधिक तार्किक ढंग से सोचती है, आदरणीय।
कुछ समय के उत्साह और कुछ समय की आश्वस्ति का अंतर जनता खूब समझती है। इस भाव-भूमि पर हुई रचना के लिए हार्दिक बधाई।
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