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"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-173

परम आत्मीय स्वजन,

ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 173 वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है |

इस बार का मिसरा जनाब 'महशर' बदायूनी साहिब की ग़ज़ल से लिया गया है |

"जिस दिये में जान होगी वो दिया रह जाएगा'

फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
2122 2122 2122 212

बह्र-ए-रमल मुसम्मन महज़ूफ़

रदीफ़ --रह जाएगा

काफिया :-अलिफ़ का (आ स्वर) क्या,खुला, आशना,आइना, वफ़ा आदि...

मुशायरे की अवधि केवल दो दिन होगी । मुशायरे की शुरुआत दिनांक 27 नवंबर दिन बुधवार को हो जाएगी और दिनांक 28 नवंबर दिन गुरुवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.

नियम एवं शर्तें:-

"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" में प्रति सदस्य अधिकतम एक ग़ज़ल ही प्रस्तुत की जा सकेगी |

एक ग़ज़ल में कम से कम 5 और ज्यादा से ज्यादा 11 अशआर ही होने चाहिए |

तरही मिसरा मतले को छोड़कर पूरी ग़ज़ल में कहीं न कहीं अवश्य इस्तेमाल करें | बिना तरही मिसरे वाली ग़ज़ल को स्थान नहीं दिया जायेगा |

शायरों से निवेदन है कि अपनी ग़ज़ल अच्छी तरह से देवनागरी के फ़ण्ट में टाइप कर लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड टेक्स्ट में ही पोस्ट करें | इमेज या ग़ज़ल का स्कैन रूप स्वीकार्य नहीं है |

ग़ज़ल पोस्ट करते समय कोई भूमिका न लिखें, सीधे ग़ज़ल पोस्ट करें, अंत में अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल आदि भी न लगाएं | ग़ज़ल के अंत में मंच के नियमानुसार केवल "मौलिक व अप्रकाशित" लिखें |

वे साथी जो ग़ज़ल विधा के जानकार नहीं, अपनी रचना वरिष्ठ साथी की इस्लाह लेकर ही प्रस्तुत करें

नियम विरूद्ध, अस्तरीय ग़ज़लें और बेबहर मिसरों वाले शेर बिना किसी सूचना से हटाये जा सकते हैं जिस पर कोई आपत्ति स्वीकार्य नहीं होगी |

ग़ज़ल केवल स्वयं के प्रोफाइल से ही पोस्ट करें, किसी सदस्य की ग़ज़ल किसी अन्य सदस्य द्वारा पोस्ट नहीं की जाएगी ।

विशेष अनुरोध:-

सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन आ जाने पर किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें | 

मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....

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मंच संचालक

जनाब समर कबीर 

(वरिष्ठ सदस्य)

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2122 2122 2122 212

घोर कलयुग में यही बस देखना रह जाएगा

इस जहाँ में जब ख़ुदा भी नाम का रह जाएगा (1)

लाडला करवा ही लेगा काग़ज़ों पर दस्तख़त

बाप बिस्तर पर दवाई माँगता रह जाएगा (2)

उठ गला भी दाब उसका रौंदता है जो तुझे

क्या वफ़ादारी में जूते चाटता रह जाएगा (3)

ऐ ख़ुदा मुझ पर तकब्बुर आ गया है क्या करूँ

ऐ ख़ुदा तू ही बता कब तक नशा रह जाएगा (4)

हम नहीं तो कुछ हमारे बा'द बदलेगा नहीं

तुम नहीं तो इस जहाँ में सब धरा रह जाएगा (5)

लोग दानिश-मंद हैं तेरी वफ़ा से खेलेंगे 

एक पागल है जो तुझको चाहता रह जाएगा (6)

लकड़ियों की सेज पर ही 'ज़ैफ़' सोएँगे सभी 

आदमी के नाम पर बस कोयला रह जाएगा (7)

(मौलिक/अप्रकाशित)

ग़ज़ल — 2122 2122 2122 212

धन कमाया है बहुत पर सब पड़ा रह जाएगा
बाद तेरे सब ज़मीं में धन दबा रह जाएगा

धर्म कोई हो दया मन में रखे हर आदमी
बिन दया के आदमी के पास क्या रह जाएगा

मीत अपना रूठ जाये तो मनाया कीजिए
बिन मनाये ज़िन्दगी भर फासला रह जाएगा

अब न तेरा है न मेरा की लड़ाई हो कभी
फिर लड़े तो बेसबब ही मसअला रह जाएगा

कुछ बुरा मत सोच 'मेठानी' भलाई के सिवा
फल भलाई का जमाना देखता रह जाएगा

गिरह
क्यों चुनौती दे रहा कोई दियों की हस्ती को
जिस दिये में जान होगी वो दिया रह जाएगा
- दयाराम मेठानी
( मौलिक एवं अप्रकाशित )

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आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

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