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ग़ज़ल नूर की - आँखों की बीनाई जैसा

आँखों की बीनाई जैसा
वो चेहरा पुरवाई जैसा.
.
तेरा होना क्यूँ लगता है
गर्मी में अमराई जैसा.
.
तेरे प्यार में तर होने दे
मुझ को माह-ए-जुलाई जैसा.
.
जोबन आया है, फिसलोगे
ये रस्ता है काई जैसा.
.
साथ हैं हम बस कहने भर को
दूध हूँ मैं वो मलाई जैसा.  
.
जाते जाते उस का बोसा
जुर्म के बाद सफ़ाई जैसा.
.
ज़ह’न है मानों शह्र का एसपी  
और ये दिल बलवाई जैसा.
.
तेरा आना पल दो पल को
सरकारी भरपाई जैसा. 
.
धागे ज़ख़्मों के उधड़े हैं
कर दो कुछ तुरपाई जैसा.
.
मौलिक/ अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by Nilesh Shevgaonkar 6 hours ago

धन्यवाद आ. अमीरुद्दीन अमीर साहब.
दूध और मलाई दिखने को साथ दीखते हैं लेकिन मलाई हमेशा दूध से ऊपर एक अलग तह बन के रहती है 
सादर 

Comment by Nilesh Shevgaonkar 6 hours ago

धन्यवाद आ. लक्षमण धामी जी 

Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी 9 hours ago

आदरणीय निलेश शेवगाँवकर जी आदाब, एक साँस में पढ़ने लायक़ उम्दा ग़ज़ल हुई है, मुबारकबाद।

सभी शे'र  मे'यारी हुए हैं, सिर्फ़ "दूध मलाई" वाले तक मेरी रसाई नहीं हो सकी है। 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' yesterday

आ. भाई नीलेश जी, सादर अभिवादन। बेहतरीन गजल हुई है। हार्दिक बधाई।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on Monday

आदरणीय, धन्यवाद. 

अन्यान्य बिन्दुओं पर फिर कभी. किन्तु निम्नलिखित कथ्य के प्रति अवश्य आपका ध्यान चाहूँगा. 

//धागे ज़ख़्मों के उधड़े हैं .... यहाँ पर भी मेरे पढ़ते अथवा सोचते समय जो पॉज आता है वो ज़ख़्मों पर अधिक फोकस करता है.//

गजल के मिसरे गद्यात्मक स्वरूप के हुआ करते हैं. मिसरों के वाक्य गद्यात्मक ही बनाते हैं. ऐसे मिसरों से बने शेरों की गजल शुद्ध और कामयाब मानी जाती है. 

शुभातिशुभ

Comment by Nilesh Shevgaonkar on Monday

धन्यवाद आ. बृजेश कुमार जी.
५ वें शेर पर स्पष्टीकरण नीचे टिप्पणी में देने का प्रयास किया है. आशा है आप संतुष्ट होंगे.
सादर  

Comment by Nilesh Shevgaonkar on Monday

धन्यवाद आ. सौरभ सर,

आपकी विस्तृत टिप्पणी से ग़ज़ल कहने का उत्साह बढ़ जाता है.
तेरे प्यार में पर आ. समर सर ने भी फोन कर के मुझे बताया था कि इसे देख लूँ.. मैं अपनी मूल प्रति में यह बदलाव किये लेता हूँ..
मिसरा अब यूँ पढ़ा जाए 
प्यार में अपने तर होने दे  
.
माह-ए-जुलाई उर्दू के क़ायदे को ध्यान में रखकर लिया है.
दूध-मलाई वाला मिसरा वैसे थे ठीक ही है फिर भी कुछ अन्य तरक़ीब भी सोचता हूँ.
SP / बलवाई में और इसलिए रखा है ताकि comparison स्पष्ट हो सके.. मंच से पढ़ते समय और इस भाव को अधिक पुष्ट करता है.  
.
धागे ज़ख़्मों के उधड़े हैं .... यहाँ पर भी मेरे पढ़ते अथवा सोचते समय जो पॉज आता है वो ज़ख़्मों पर अधिक फोकस करता है.
फिर भी मैं आप के बताए सभी बिन्दुओं पर पुनर्विचार अवश्य करूँगा.

सादर 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on Monday

धन्यवाद आ. गिरिराज जी 

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on Monday

आपकी ग़ज़लों पे क्या ही कहूँ आदरणीय नीलेश जी हम तो बस पढ़ते हैं और पढ़ते ही जाते हैं।किसी जलधारा का प्रवाह हो जैसे लेकिन ५वे शेर पे प्रवाह में अटका हूँ। सो अपने ज्ञानवर्धन के लिए जानना चाहता हूँ ऐसा क्यों? ​ग़ज़ल के लिए बधाई आदरणीय....


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on Sunday

वाह, हर शेर क्या ही कमाल का कथ्य शाब्दिक कर रहा है, आदरणीय नीलेश भाई. मतले ने ही ऐसा मन मोह लिया. कि पूरी गजल को एक साँस में पढ़ता चला गया.

हार्दिक बधाई स्वीकार करें .. वाह वाह ... 

 

वस्तुतः मात्रिक बहर के मिसरों की मुख्य विशेषता ही यही है, कि उसका वाचन सप्रवाह हुआ करता है. वाचन-प्रवाह में तनिक अटकाव इसकी विशेषता से समझौते का कारण बन जाता है. इसी कारण, मिसरों के विन्यास और इसकी मात्रिकता के शुद्ध होने के बावजूद शब्दों के विन्यास मात्राओं के अलावा उनके उच्चारण पर भी निर्भर करते हैं. 

आँखों की बीनाई जैसा
वो चेहरा पुरवाई जैसा.        ...  क्या ही कमाल का मतला हुआ है ! वाह वाह वाह .. 
.
तेरा होना क्यूँ लगता है        ...  अरे भाई, पूछना क्यों ? स्वीकर कर आश्वस्ति के साथ कहें - तेरा होना यूँ लगता है, गर्मी में अमराई जैसा 
गर्मी में अमराई जैसा.
.
तेरे प्यार में तर होने दे   ....  उला का मिसरा भाषा-व्याकरण के लिहाज से सही नहीं है, आदरणीय. तेरे की जगह अपने होना उचित होगा
मुझ को माह-ए-जुलाई जैसा   .. मुझको माह जुलाई जैसा .. यह कहने में क्या आपात्ति है ? .
.
जोबन आया है, फिसलोगे         जोबन आया है, तो जानो  .. ये रस्ता है काई जैसा  
ये रस्ता है काई जैसा.
.
साथ हैं हम बस कहने भर को
दूध हूँ मैं वो मलाई जैसा.                मत्रिक बहर की खुसूसियत का निर्वहन किया जाना आवश्यक है
.
जाते जाते उस का बोसा
जुर्म के बाद सफ़ाई जैसा.             क्या ही खयाल है .. वाह 
.
ज़ह’न है मानों शह्र का एसपी      
और ये दिल बलवाई जैसा.           दिल मेरा बलवाई जैसा 
.
तेरा आना पल दो पल को
सरकारी भरपाई जैसा.    ...    कमाल कमाल .. वाह वाह 
.
धागे ज़ख़्मों के उधड़े हैं        .. जख्मों के धागे उधड़े हैं   .. 
कर दो कुछ तुरपाई जैसा.

आप मेरे बिन्दुओं पर विचार कर मुझे भी बताइएगा.  एक बहुत ही सहज और सरल किंतु मेयार में ऎक ऊँची गजल के लिए हार्दिक बधाई, आदरणीय 

कृपया ध्यान दे...

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