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काश
टूट जाए ये दीवार
और हो उन्मुक्त,
 उड़ चलूँ मैं,
भाव-पंख पसार
विस्तृत आकाश में दूर क्षितिज को नापने...
या 
बन मछली, करती
लहरों से अठखेलियाँ, 
बूँद बूँद से मोहब्बत,
छू लूँ सागर की तह
और ढूँढ लूँ सारे मोती....
या
मिल जाऊं मिट्टी में
और एकीकृत हो धरा से
शांत करूँ उसकी हलचल
ताकि न उजड़े फिर कोई जिंदगी
धरती के सीने में दफ़न अगन के प्रकोप से....
या
समा जाऊँ तुम्हारे भीतर
और जी लूँ तुम्हें
तुम्ही में हर पल
सोख लूँ, तुम्हारे
हर भाव को, हर ज्ञान को
और महसूस करूँ 
तुम्हारी पूर्ण खूबसूरती, जब चाहूँ....
काश टूट जाए
मेरे ही भीतर
मेरे ही देह-बोध की ये दीवार
और
अभी इसी वक़्त
हो जाऊँ मैं आज़ाद हर बंधन से.....

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on September 1, 2012 at 10:03am

बहुत बहुत आभार आदरणीय योगी सारस्वत जी , आपने इस अभिव्यक्ति को पसंद किया व इसकी सराहना कर मुझे प्रोत्साहित किया..

Comment by Yogi Saraswat on August 28, 2012 at 4:22pm
समा जाऊँ तुम्हारे भीतर
और जी लूँ तुम्हें
तुम्ही में हर पल
सोख लूँ, तुम्हारे
हर भाव को, हर ज्ञान को
और महसूस करूँ 
तुम्हारी पूर्ण खूबसूरती, जब चाहूँ....
काश टूट जाए
मेरे ही भीतर
मेरे ही देह-बोध की ये दीवार
और
अभी इसी वक़्त
हो जाऊँ मैं आज़ाद हर बंधन से.....
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति !

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on August 28, 2012 at 2:46pm

आदरणीय दीपक कुलुवी जी, इस रचना की सराहना कर प्रोत्साहित करने हेतु हार्दिक आभार 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on August 28, 2012 at 2:45pm

रह रचना प्रवाह आपको रुचा इस हेतु आभार नवल किशोर जी  


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on August 28, 2012 at 2:44pm

इस रचना में निहित सोच को मान देने के लिए बहुत बहुत आभार आदरणीय फूलसिंह जी 

Comment by Deepak Sharma Kuluvi on August 28, 2012 at 12:46pm

wonderful rachna......

kuluvi

Comment by Naval Kishor Soni on August 28, 2012 at 12:41pm
काश
टूट जाए ये दीवार
और हो उन्मुक्त,
 उड़ चलूँ मैं,
भाव-पंख पसार
विस्तृत आकाश में दूर क्षितिज को नापने...---
काश
टूट जाए ये दीवार
और हो उन्मुक्त,
 उड़ चलूँ मैं,
भाव-पंख पसार
विस्तृत आकाश में दूर क्षितिज को नापने........................बहुत ही सुंदर ..!
Comment by PHOOL SINGH on August 28, 2012 at 12:24pm

प्राची जी  नमस्कार

आपकी सोच को सलाम .......बहुत ही सुंदर ....सुंदर रचना ..

फूल सिंह


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on August 28, 2012 at 9:58am
आदरणीय अम्बरीश जी,
इस अतुकांत भाव प्रवाह को भी आपने सराहा इस हेतु आपका हार्दिक आभार.
आप बिलकुल सही कह रहे हैं  "मर्यादित छंद बंधन में रहकर किया गया प्रयास अत्यंत सुखकारी व संतुष्टि कारी होता है " ...
जब से मैंने ओबीओ पर छंद ज्ञान प्राप्त कर, छंद बद्ध रचना प्रयास शुरू किया है, मुझे स्वयं भी अतुकांत कवितायेँ लिखना संतुष्टिकर नहीं लगता. 
किन्तु , कभी कभी भाव प्रवाह इतना प्रबल होता है, कि उसे लिखे बिना रहा नहीं जाता, और वक़्त भी कम होता है, हम उसे छंद बद्ध कर भी नहीं पाते...
अक्सर कॉलेज के प्राकृतिक सौन्दर्य से भरपूर खूबसूरत रास्ते में ४५-४५ मिनट तक गाड़ी चलाते हुए जब आती-जाती हूँ तो ही कविताओं का भाव आधार जन्म लेता है l  कल भी वक़्त बहुत कम था , और इन भावों को खोना नहीं चाहती थी, इसलिए  इसलिए आते ही सीधे अंतर-जाल पर इसे लिख दिया.
कई पन्ने भावों को समेटे बैठे हैं छंद-बद्ध होने को इंतज़ार में, कागज़ पर लिखती तो शायद एक पन्ना और बढ जाता .
 
फिर भी आपको इस रचना की भाव दिशा व सकारात्मकता प्रभावित कर सकी इस हेतु आपकी ह्रदय से आभारी हूँ.
सादर.
Comment by Er. Ambarish Srivastava on August 28, 2012 at 8:33am

//बन मछली, करती

लहरों से अठखेलियाँ, 
बूँद बूँद से मोहब्बत,
छू लूँ सागर की तह
और ढूँढ लूँ सारे मोती....
या
मिल जाऊं मिट्टी में
और एकीकृत हो धरा से
शांत करूँ उसकी हलचल
ताकि न उजड़े फिर कोई जिंदगी
धरती के सीने में दफ़न अगन के प्रकोप से....
काश टूट जाए
मेरे ही भीतर
मेरे ही देह-बोध की ये दीवार
और
अभी इसी वक़्त
हो जाऊँ मैं आज़ाद हर बंधन से.....
//
आदरेया डॉ० प्राची जी,   ......वैसे तो मर्यादित बंधन (चाहे वह छंदों का बंधन हो या कोई अन्य) में रहकर किया गया प्रत्येक प्रयास अंततः सुखकारी व संतुष्टिकारी ही होता है पर इस चंचल मन का क्या करें जो प्रत्येक बंधन से मुक्त रहकर सदैव उन्मुक्त बन कर ही जीना चाहता है......... आपकी इस रचना ने  इसे एक सही दिशा देते हुए इसकी सकारात्मक सोंच को सार्थकता प्रदान की है ..... मन के भावों को व्यक्त करती हुई इस बेहतरीन व सार्थक रचना के लिए हृदय से बधाई व साधुवाद स्वीकारें ....... सादर

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