जाते हैं स्कूल, मगर क्यों जाते हैं !
आने-जाने में, कहो क्या पाते हैं !!
वहाँ सुनें हम कितनी बातें
ऐसी-वैसी इतनी बातें
सोच-समझ की जितनी बातें
अक्षर-अक्षर उतनी बातें..
अलग किताबों से, बहुत कुछ लाते हैं !
जाते हैं स्कूल, मगर क्यों जाते हैं !!
’क्या-क्यों-कैसे’ हो कुछ जो भी..
नहीं जरूरत, पर उसको भी !
दिनभर मग़ज़ खपायें तो भी
पूछें सारे.. देखा ’वो भी’ ?
मगर कभी सोचा, हमें क्या भाते हैं ?
जाते हैं स्कूल, मगर क्यों जाते हैं !!
आशाएँ सबकी हों पूरी
लिखना-पढ़ना बहुत जरूरी;
पर ऐसी भी क्या मजबूरी.. .
खेल-कूद-टीवी से दूरी ?
सुखद-सुहाने पल स्वप्न में गाते हैं !
जाते हैं स्कूल, मगर क्यों जाते हैं !!
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इस बाल-कविता को मेरी आवाज़ में सुनें
- सौरभ
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बाल मन की जिज्ञासा उसके मन में उपजे भावों को बहुत सुन्दरता से शब्दों में पिरोया है आदरणीय सौरभ जी बहुत अच्छी कविता लिखी
यह बाल-कविता वस्तुतः भोले बच्चों की निग़ाहों से परिदृश्य को देखने की एक कोशिश है. प्रस्तुत रचना पर आपका सादर अनुमोदन उत्साहवर्द्धक है, आदरणीया राजेश कुमारीजी. सादर धन्यवाद.
वैसे आजकल आप हर स्तर की रचनाओं को अपनी उदारता से नवाजती दिख रही हैं. बहरहाल, आपकी विशालता सादर स्वीकार्य है.
वाह क्या बालपन में पहुंचे हैं सौरभ जी आप ......सच कहें तो ये सारे प्रश्न तब भी थे जब हम पढ़ने जाते थे और आज भी हैं जब ये पढ़ने जाते हैं ..फर्क बस इतना है हम जा कर लौटते भी थे पर आज की जो स्थिति है उसमे ये रात में सोने तक भी स्कूल में ही होते हैं (कभी कभी तो सपने में भी) भोलापन ,या सहज जिज्ञासा को व्यक्त करने का समय ही कहाँ है आज बच्चो के पास
नहीं जरूरत, पर उसको भी...... आधुनिक शिक्षा के स्वरुप का एक बहुत बड़ा सत्य
दिनभर मग़ज़ खपायें तो भी
पूछें सारे.. देखा ’वो भी’......बहुत कुछ के बाद भी बहुत कुछ नहीं का अहसास हमेशा उनके मन में सिर्फ इसलिए डाले रखा जाता है की कही वो ......................................संतुष्ट हो कर जानने का अभ्यास न छोड़ दें .
पर ऐसी भी क्या मजबूरी.. .
खेल-कूद-टीवी से दूरी........ मनोरंजन और खेलकूद भी अजब ढंग से इनके जीवन में प्रस्तुत रहता है अर्थात प्रतियोगिता के रूप में ज़बरदस्ती .....................................ठूंसा हुआ ....स्वतंत्रता या उन्मुक्तता का भाव वहाँ भी नहीं
ये सब बातें हमेशा ही व्यथित करतीं हैं पर जो दृश्य है उसे बदलना अब बहुत मुश्किल है ......
झुक गयी है पीठ ,रीते हो रहे मेरे सपन
फूल,बादल, तितलियाँ परियां सभी कुछ है दफन
इतनी उम्मीदों की जंजीरे बंधी हैं पैर में
अब कहाँ भोला रहा या अब कहाँ वो बालपन
बधाई सौरभ जी इस चिंतन के लिए ......
सीमाजी, आपकी बेबाक प्रतिक्रिया के लिए हृदय से धन्यवाद कह रहा हूँ.
यह सही है कि हम स्कूलों से तब ’लौटते’ थे और खूब लौटते थे. तभी वहाँ दूसरे दिन वापस पहुँचने का मन भी करता था. मग़र आज के बच्चों को देख कर आत्मा रो उठती है. हर महीने तो एग्जाम और तुर्रा ये कि तथाकथित मॉडल टेस्ट अलग से. बच्चों की क्या ज़िन्दग़ी हो गयी है ! सृजन और क्रियेटिविटी की तो कुछ गुंजाइश ही नहीं रह गयी है. ’निगलो-उगलो’ की श्वान-दशा को अभिशप्त ये मासूम क्या जीवन जी रहे हैं ! यही सारा कुछ दर्द बन कर उभर आया है, इस बाल-कविता में.
आपकी संवेदनशील दृष्टि ने इस बाल-कविता की आत्मा को समझा और आपने इसे मुलामियत से छुआ, समझिये, मेरा प्रयास आधार पाता लग रहा है.
चार पंक्तियों में उभर आयी आपकी भावनाओं को मैं हार्दिक रूप से स्वीकारता हूँ .. . सादर
जाते हैं स्कूल, मगर क्यों जाते हैं !
आने-जाने में, कहो क्या पाते हैं !!..................बिलकुल बच्चों के मन में झाँक कर लिखा है आदरणीय सौरभ जी आपने
वहाँ सुनें हम कितनी बातें
ऐसी-वैसी इतनी बातें
सोच-समझ की जितनी बातें
अक्षर-अक्षर उतनी बातें..
अलग किताबों से, बहुत कुछ लाते हैं !.............किताबों से अलग इतनी सारी चीजें भी लाते हैं बच्चे (सबसे ज्यादा तो वो शिक्षकों के आचरण को देख कर सीखते हैं, पर दुखद है कि आज कल नन्हों पर डिसिप्लिन को भी दबाव के साथ आरोपित किया जाता है, बच्चों के हृदयों में शिक्षकों के प्रति प्रेम जैसे शिक्षक खुद ही मार देते हैं..
जाते हैं स्कूल, मगर क्यों जाते हैं !!..................इतना ज्यादा सिलेबस होता है बच्चों का, कि टीचर नर्सरी केजी में भी बच्चों को आधार भूत ज्ञान तक स्कूल में हृदयंगम नहीं करा पाते, सिर्फ एक औपचारिकता की तरह निबटाते जाते है... ऐसा माता पिता को भी लगता है,कि ऐसे में बच्चे जाते स्कूल मगर क्यों जाते हैं.
’क्या-क्यों-कैसे’ हो कुछ जो भी..
नहीं जरूरत, पर उसको भी !.......उफ़
दिनभर मग़ज़ खपायें तो भी..........बेहद पीड़ादायक पर बच्चों के पास पड़ाई होमवर्क के नाम पर इतना दबाव होता है की कई बार उन्हें काम पूरा करने के चक्कर में क्या कर रहे हैं यह तक समझ बिलकुल भी नहीं आता, ना ही क्लास रूम में और कभी कभी तो घर पर भी नहीं
पूछें सारे.. देखा ’वो भी’ ?...................................सबसे गलत दबाव,
मगर कभी सोचा, हमें क्या भाते हैं ?.............बिलकुल सही प्रश्न पकड़ा बाल मन का. बिलकुल उँगलियों पर गिने जाने वाले विद्यालय है, जो बच्चों को जो उन्हें भाये वैसे ज्ञान देते हैं.
जाते हैं स्कूल, मगर क्यों जाते हैं !!
आशाएँ सबकी हों पूरी.............................टीचर्स की, माता पिता की, और बच्चा खो दे अपना बचपन और आत्म विश्वास भी डाट खाते खाते
लिखना-पढ़ना बहुत जरूरी;
पर ऐसी भी क्या मजबूरी.. .
खेल-कूद-टीवी से दूरी ?................आउटडोर गेम्स खेलने के लिए वक़्त ही नहीं मिलता बच्चों को
सुखद-सुहाने पल स्वप्न में गाते हैं !
जाते हैं स्कूल, मगर क्यों जाते हैं !!
बच्चों के मन की बातें कहता बहुत सुन्दर गीत. हार्दिक बधाई इस गीत के लिए.
सादर.
सौरभ जी इस विचार प्रधान बाल गीत हेतु बधाई
आशाएँ सबकी हों पूरी
लिखना-पढ़ना बहुत जरूरी;
पर ऐसी भी क्या मजबूरी.. .
खेल-कूद-टीवी से दूरी ?
बाल मन की ऊहापोह का सटीक चित्रण.
आचार्य सलिलजी, अपनी रचना पर आपका अनुमोदन पा कर स्वयं के रचनाकर्म को सार्थक दिशा में जाता देख पा रहा हूँ.
आपकी सदाशयता का हार्दिक रूप से आभारी हूँ. सादर
आदरणीय सौरभ जी,
बहुत अच्छा किया आपने इस रचना को अपना स्वर दे कर..
बिलकुल ऐसी ही लय निर्धारित की थी मैंने भी इसे पढ़ते हुए..
हर अंतरे की चौथी पंक्ति को प्रश्नवाचक रूप से सुर देना कविता की रोचकता को बहुत बढ़ा रहा है..
एक आग्रह है, यदि एक सुन्दर सी तस्वीर भी लगा दी जाए तो मज़ा आ जाए.
बाल साहित्य समूह को इस उत्कृष्ट बाल रचना से समृद्ध करने के लिए आभार आदरणीय. सादर.
डॉ.प्राची, आपने बाल-गीत ’जाते हैं स्कूल..’ के सस्वर पाठ को अनुमोदित कर मुझे परम संतोष के क्षण उपलब्ध कराये हैं. यह जान कर बहुत ही अच्छा लगा है डॉक्टर साहिबा कि कुछ इसी तरह के स्वर-पाठ की आपने भी कल्पना की थी. आपका हार्दिक आभार.
इस पेज पर चित्र प्रस्तुत करने का प्रयास करता हूँ. भाई गणेशजी से भी इस हेतु सहयोग की अपेक्षा है.
सादर
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