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--छन्द --


तन जरत, मन बरत, लगत सर, टप-टप टपकत चलत रकत धर।
हरत न भव-भय मन इरष कर, हर-हर बरषत झरत छपर घर।।
तन क्षरत मन कस न ठगत नर, जल घट भर-भर भरत नगर सर।
तन-मन-धन सब धरन कंत घर,हस-हस मरकर सरग चलत नर।।4
सत्यम/मौलिक एवं अप्रकाषित रचना

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 16, 2013 at 10:22am

लर्वल्ध्वक्षर छन्द .. कृपया इस छंद का विधान साझा करें भाई केवल प्रसादजी.  उसके उपरांत ही मैं कुछ कह पाऊँगा.

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on March 16, 2013 at 9:46am

आदरणीय सौरभ पाण्डे-गुरूजी, सुप्रभात! ‘बिन गुरू ज्ञान कहाँ से पाऊँ सर जी, यह छन्द मैने 03.04.1991 में लिखा था! इसे ‘लर्वल्ध्वक्षर छन्द‘ में लिखने का प्रयास था! ‘कंत‘ मे चन्द्रबिन्दी समझ कर लगायी है! कृपया कोई त्रुटि हो तो निर्देश देने की कृपा करें और आशीष बनाये रखें! कृतज्ञ पूर्ण बहुत बहुत आभार..!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 16, 2013 at 1:06am

चार पदों में मात्र एक गुरु का प्रयोग.. यह क्या छंद है, इसे स्पष्ट करें ?

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on March 13, 2013 at 3:48pm

तन-मन-धन सब धरन कंत घर,हस-हस मरकर सरग चलत नर- बहुत सुंदर बधाई केवल सर 

क्षण क्षण घटत वय पग पग सरत,हस हस सरक सरग चल नर -लक्ष्मण प्रसाद 

Comment by Yogi Saraswat on March 13, 2013 at 2:18pm

तन क्षरत मन कस न ठगत नर, जल घट भर-भर भरत नगर सर।
तन-मन-धन सब धरन कंत घर,हस-हस मरकर सरग चलत नर।।4

बहुत खूब

Comment by ram shiromani pathak on March 12, 2013 at 5:50pm

बहोत ही बढ़िया कहा आपने आदरणीय केवल भाई जी  .....सादर

Comment by रविकर on March 12, 2013 at 4:32pm

अजब गजब
पढ़ कर मन हरष हरष कर-
मंगल मंगल
जय जय-

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