सुधिजनो !
दिनांक 19 जनवरी 2014 को सम्पन्न हुए "ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव" अंक - 34 की समस्त प्रविष्टियाँ संकलित कर ली गयी है.
इस बार संकलित रचनाओं की प्रस्तुति में हुए विलम्ब का मुख्य कारण संलग्न सदस्यों की अति व्यस्तता रही. मैं भी एक साहित्यिक समारोह के सिलसिले में भोपाल के निकट सिहोर गया हुआ था जहाँ का कार्यक्रम अपने मंच के इस आयोजन की समाप्ति के दिन ही था.
सर्वोपरि, इस बार पिछले माह की तरह हमारे पास कोई रामशिरोमणिजी उपलब्ध नहीं थे जो रचनाओं के संकलन का महती कार्य अति उत्साह से अपने हाथ में ले लेते.
वैसे भी सतत चलते कार्य रामशिरोमणिजी जैसे सात्विकों के ऊपर निर्भर हो कर नहीं चला करते, जहाँ उनकी सात्विकता को उभारने के लिए किसी न किसी जामवंत की आवश्यकता पड़ती ही पड़ती है. हमसब भी ऐसे जामवंती रूप और दायित्व से दूर ही रहना पसंद करते हैं.
सहयगी सदस्यॊं की व्यक्तिगत, व्यावसायिक और पारिवारिक व्यस्तताएँ भी आड़े आती हैं.
यों, इस मंच की अवधारणा ही वस्तुतः बूँद-बूँद सहयोग के दर्शन पर आधारित है. यहाँ सतत सीखना और सीखी हुई बातों को परस्पर साझा करना, अर्थात, सिखाना, मूल व्यवहार है.
सर्वविदित ही है कि, माह जनवरी’14 से ’चित्र से काव्य तक’ छंदोत्सव का ढंग बदल गया है.
अब प्रदत्त छंदों पर ही रचनाओं का प्रस्तुतीकरण हो सकता है. उन छंदों के विधानों के मूलभूत नियम भी आयोजन की सूचना के साथ भूमिका में स्पष्ट कर दिये जाते हैं. प्रतिभागियों से अपेक्षा मात्र इतनी होती है कि वे उन दोनों छंदों के मुख्य नियमों को जान लें और तदनुरूप रचनाकर्म करें.
इस पूरी कवायद में प्रस्तुतियों में छांदसिक विविधताएँ तो देखने में नहीं आती जैसी कि पहले होती थीं. लेकिन आयोजन विशेष में प्रदत्त छंदों के नियमों से सम्बन्धित जानकारी ही नहीं मिलती बल्कि मूलभूत नियमों के लिखे होने के कारण शिल्पगत एकरूपता भी बनी रहती है. अन्यथा, पुराने फ़ॉर्मेट में देखा यह जाने लगा था कि कतिपय उत्साही छंदकार रचनाओं के लिए छंद तो अभिनव-अभिनव ढूँढ लाते थे लेकिन नियमों के सूक्ष्म विन्दुओं को तो छोड़िये, मूलभूत विन्दुओं तक की जानकारी न होने से उनका सारा प्रयास अक्सर सतही हो कर सुधी-पाठकों के लिए चिंता का कारण हो जाता था.
ऐसे में छंदों के नाम और उनके विधानों के मूलभूत नियमों के घोषित और लिखित होने से यह आशा बनती है कि रचनाकर्म के विधान में न केवल शिल्पगत एकरूपता बनी रहेगी, बल्कि जागरुक पाठकों के लिए कालांतर में छंदों के विधानों के मूलभूत नियमों का अच्छा-खासा नोट भी तैयार हो सकेगा.
यह वस्तुतः एक सात्विक सोच है.
लेकिन अत्यंत दुःख के साथा साझा करने को बाध्य होना पड़ रहा है कि अधिकांश प्रतिभागियों ने दोहा और रोला छंद के विधानों या इनसे पहले शब्दों के ’कलों’ और उनसे साधे जा सकने वाले शब्द-संयोजनों के नियमों को ध्यान से पढ़ना तो दूर उन्हें देखने तक की ज़हमत नहीं उठायी गयी. और प्रस्तुतियों के क्रम में हालत यह रहे कि ऐसे-ऐसे दोष दृष्टिगत हुए जिन्हें वस्तुतः प्रस्तुतियों में होना ही नहीं चाहिये थे.
यथा, रोला छंद के पदों की संख्या को लेकर हुआ भ्रम, या, दोहा के विधान के मूल विन्दुओं को छोड़िये, छंद के स्वरूप तक को लेकर हुई हास्यास्पद भूल, आदि.
कई प्रतिभागियों की छंद रचनाएँ शब्द-संयोजन के लिहाज से बहुत ही कमज़ोर दिखीं जबकि शब्द-संयोजन को लेकर समुचित विस्तार से छंदोत्सव की भूमिका में ही बता दिया गया था.
शब्द-संयोजन के पहलू छंदों ही नहीं किसी मात्रिक छंद का आधार हुआ करते हैं. यानि जिन रचनाओं का सस्वर पाठ हो सकता है वहाँ इनका प्रभावी होना आवश्यक है. किन्तु, प्रतिभागियों द्वारा विधान के कुछ पहलू उपलब्ध कराये जाने के बाद भी इन्हें न पढना और रचनाकर्म करने लगना आश्चर्यचकित करता है. सही कहिये, यह स्थिति अत्यंत निराशाजनक है.
हम एक पाठक के तौर पर क्या, एक प्रतिभागी होने के बावज़ूद ’कुछ पढ़ना नहीं’ चाहते. फिर हम किस अधिकार से यह अपेक्षा करते हैं कि पाठक हमारी रचनाएँ (?) मनोयोग से पढ़ें !
खैर..
हमें यह अवश्य सोचना चाहिये कि हम किसी दिये गये विन्दु पर विधिसम्मत कैसे लिखें. यह अत्यंत हल्की स्थिति होगी कि आधार को समझे बिना ही कोई नींव खोदने लग जाये. किन्तु, आयोजन में प्रस्तुतियों के क्रम में यही हुआ है.
आखिर क्या कारण हो सकता है कि प्रतिभागी लिखे हुए विधान-प्रक्रिया की पंक्तियों से कुछ न समझ आने के बावज़ूद कायदे से एक प्रश्न तक नहीं करते और विधान के मूलभूत नियमों से बिना कोई साबका बनाये रचनाकर्म करने लगते हैं ?
दूसरी मुख्य बात प्रदत्त चित्र को समझने और उसके ऊपर कार्यशाला जैसे आयोजन के उद्येश्य को लेकर सामने आयी.
मूल प्रश्न आखिर यही रहा है कि प्रदत्त चित्र को रचनाकर्म के लिहाज से कैसे देखा जाये. इस विषय पर कई-कई आयोजनों में प्रधान सम्पादक आदरणीय योगराज भाईसाहब ने सदा से खुल कर कहा है कि आयोजन की प्रस्तुतियों को साझा करने का उद्येश्य मात्र चित्र के अनुसार या उसके ऊपर लिखने या उसमें दर्शाये गये अन्यान्य पहलुओं को अभिव्यक्त करना ही नहीं होना चाहिये, बल्कि चित्र के आधार पर एक वातावरण बनाने की प्रक्रिया अपनायी जाय और तदनुरूप रचनाकर्म किया जाये. प्रधान सम्पादक इसे चित्र की आत्मा में घुसना कहते हैं.
अर्थात, चित्र परिभाषित तो हो ही, चित्र का अंतर्निहित वातावरण और फिर उसकी या उससे मिलती-जुलती अपेक्षायें भी साझा हों. ताकि कविकर्म का एक सार्थक आयाम सामने आये और रचनाकार की कल्पनाशीलता को आवश्यक उड़ान भी मिल सके.
यह अवश्य है कि इस क्रम में यह ध्यान रहे कि किसी शेर के चित्र पर उदबिलाव की चर्चा नहीं करनी है. लेकिन शेर को भी अभिव्यक्त करने के कई पहलू हो सकते हैं.
इस बार भी आयोजन की सबसे सार्थक घटना इस मंच के प्रधान सम्पादक आदरणीय योगराजभाईसाहब की मुखर प्रतिभागिता को मानता हूँ. पिछले आयोजन की तुलना में इस बार उनकी संलग्नता अधिक मनोयोगपूर्ण रही. इतनी कि मैं संचालक के तौर पर अधिकतर अनुपस्थित रहा ही, प्रबन्धन के अन्य सदस्य भी कई-कई कारणों से पूरे समय उपस्थित नहीं रह पाये. ऐसे में आदरणीय योगराजभाईजी का अपनी शारीरिक अस्वस्थता और कमज़ोरी एवं व्यस्तता के बावज़ूद मंच पर सतत बने रहना उनके प्रति मुझे और अधिक श्रद्धावान बना रहा है. रचना दर रचना प्रतिक्रिया छंदों के माध्यम से आपने अपनी मौज़ूदग़ी जतायी.
पिछले माह की तरह इस आयोजन में सम्मिलित हुई रचनाओं के पदों को रंगीन किया गया है जिसमें एक ही रंग लाल है जिसका अर्थ है कि उस पद में वैधानिक या हिज्जे सम्बन्धित दोष हैं या व पद छंद के शास्त्रीय संयोजन के विरुद्ध है. विश्वास है, इस प्रयास को सकारात्मक ढंग से स्वीकार कर आयोजन के उद्येश्य को सार्थक हुआ समझा जायेगा.
मुख्य बात - मैं पिछले रिपोर्ट की तरह पुनः कहूँगा, कि, तुम्हारे, नन्हें, नन्हा, इन्हें आदि-आदि शब्दों के प्रयोग में सावधान रहने की आवश्यकता है. आंचलिक शब्दप्रधान रचनाओं या खड़ी हिन्दी की रचनाओं में भी इनकी मात्राएँ संयुक्ताक्षर के लिए अपनाये गये नियम से अलग हो सकती हैं, जोकि स्वराघात में बदलाव के कारण होता है. कई स्थापित रचनाकार ऐसे संयुक्ताक्षरों में अक्षरों की गिनती नहीं करते जिनका स्वराघात मूल व्यंजन के साथ ही घुला हुआ हो.
आगे, यथासम्भव ध्यान रखा गया है कि इस आयोजन के सभी प्रतिभागियों की समस्त रचनाएँ प्रस्तुत हो सकें. फिर भी भूलवश किन्हीं प्रतिभागी की कोई रचना संकलित होने से रह गयी हो, वह अवश्य सूचित करे.
सादर
सौरभ पाण्डेय
संचालक - ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव
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सौरभ पाण्डेय
रोला
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बहुत कड़ी है धूप, प्यास से त्रस्त दिखे है
है औरत मज़बूत, किन्तु कुछ लस्त दिखे है
बहुत जान की सख़्त, तभी तो इतनी हिम्मत
दिनभर गिट्टी तोड़, जोड़ती तिल-तिल किस्मत
रोड़ा-पत्थर-ईंट, कुदाल-हथौड़ी-डलिया
या, गारा-सीमेण्ट, उठाने वाली अढिया*
माह जेठ-बैसाख, यही कुछ इसके साधन
इनसे नाता जोड़, करे रेजा** आराधन
*अढिया - गारा-सीमेण्ट आदि को उठाने के लिए प्रयुक्त लोहे की कड़ाही
**रेजा - मजदूरिन
******
दोहा
===
गिट्टी-पत्थर दिन सभी, रातें चुभती खूँट
किस्मत लगी उदार-सी, मिल जाती जल-घूँट
जबतक तन में जान है, इच्छा रखे अधीन
चला रहा है पेट ही सबकी देह-मशीन
औरत पत्थर तोड़ती जोड़ रही संसार
जीना भारी ज़ंग है, भाँज रही तलवार
आम ज़िन्दग़ी के लिए सपने हैं अधिकार
हाड़तोड़ की झोंक पर निर्भर सब संसार
दे पाया क्या सोचिये, जन-गण का उन्माद
वही सड़क, पत्थर वही, वही इलाहाबाद
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श्री अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव
दोहे
ब्याह कर हो गई बिदा, सपने मधुर सजाय।
दो गरीब दिल से मिले, पर न गरीबी जाय॥
पेट पालने के लिए, औरत करती काम।
काम अधिक है, दाम कम, तनिक नहीं आराम॥
गिट्टी , तसला* ,फावड़ा, श्रम देवी सा रूप।
श्रमिकों के शृंगार हैं , धूल, पसीना , धूप॥
प्याज साथ कुछ रोटियाँ, पेट नहीं भर पाय।
आधे को जल से भरे, ना कछु और उपाय॥
घुट- घुट कर जीते रहो, सुबह, दोपहर, शाम।
किस कसूर की दी सजा, हे गिरिधर, हे राम॥
*तसला = लोहे की कड़ाही
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श्री चौथीमल जैन
दोहे
नीचे गिट्टियाँ है गरम , ऊपर सूरज धूप |
पानी जरा सा है लगे , जैसे पीया हो सूप ||
लिए तगारी ओ फावड़ी , भरती रही मजूर |
भरी दुपहरी ये हो गई , साँझ अभी है दूर ||
दिन भर गिट्टियाँ डारती ,भर -भर के कहीं दूर |
साँझ तलक हो जायेगी ,थक करके जब चूर ||
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श्री लक्ष्मण प्रसाद लड़ीवाला
दोहे
महिला पत्थर तोड़ती, लगी रहे दिन रात,
रोक सके आतप उसे, क्या उसकी औकात |
डरे न आतप शीत से, कैसी हो बरसात,
बिजली बादल गर्जना, सब है थोथी बात |
मजदूरी की चाहना,चला सके परिवार,
गर्जन करते मेघ का, करती रहे निहार |
कलम नहीं तो क्या हुआ, गैती ही हथियार
ले हाथों में फाँवडा, गाती है मल्हार |
रूखी सूखी खाय के, पानी ले गटकाय,
सहती रहती पीर पर, अश्क नहीं ढलकाय |
सुबह सवेरे देर तक, घर के करती काम,
हाड़तोड़ श्रम जो करे, उसे कहाँ विश्राम |
दूसरी प्रस्तुति
*रोला छंद
हो गर्मी या शीत, चाह नहीं सुविधा मिले,
करके क्षुधा शांत, करे श्रम तब फूल खिले |
श्रम पर देवे ध्यान, कैसी भी हो मज़बूरी
समझे वह सद्काम,श्रम साध्य हो मजदूरी |
करने को कल्याण वह पीर भी सह सकती
रखे निष्काम भाव यश के न भाव रखती |
किसमें है औकात,रोक पाए जननी को,
करती जाए काम, रखे न अधूरा उसको |
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श्री कुमार गौरव अजीतेन्दु
रोला छंद
सुलगे जीवन आँच, बनी ईंधन ये काया।
तोड़-तोड़ के हाड़, कलेजा मुँह को आया।
हलक मचाता शोर, पिला दूँ उसको पानी।
बाकी पूरी जंग, खून की रहे रवानी॥
पत्थर हैं निष्प्राण, मगर मुझमें जीवन है।
शीतलता का घूँट, माँगता मेरा तन है।
दूर अभी है साँझ, मुझे फिर जुट जाना है।
बुला रहे हैं कर्म, उन्हें भी निपटाना है॥
संशोधित
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श्री रमेश कुमार चौहान
दोहा
छलके* थकान अंग पर, कंठ रहा है सूख ।
अधर नीर ले सांस भर, मिटा रही वह भूख ।।
श्रम देवी श्रृंगार कर, धारे आयुध हाथ ।
सृजित करने राह नव, पत्थर ढोती माथ ।।
नारी अबला होय ना, घर बाहर है नाम ।
चूल्हा चौका साथ में, करती वह सब काम ।।
संघर्षो से जूझना, भरत वंश पहचान ।
संघर्षो से जूझते, राम बने भगवान ।।
श्रम तो जीवन साध्य है, साधे सकल सुजान ।
श्रमफल मीठा होत है, चख लो आप महान ।।
रोला
पी लेती हूँ नीर, काम है बाकी करना ।
काम काम रे काम, रोज है जीना मरना ।।
मजदूरी से मान, कहो ना तुम लाचारी ।
मिलकर सारे बोझ, ढोय ना लगते भारी ।।
सवाल पापी पेट, कौन ले जिम्मेदारी ।
एक अकेले आप, *खींच सकते हो गाड़ी ।।
मिलकर हम घर बार, चलायें साजन मेरे ।
अपना ये परिवार, नहीं है केवल तेरे ।।
*संशोधित
द्वितीय प्रस्तुति
दोहा
पानी बोतल हाथ ले, बुझा रही वह प्यास ।
कारज करना शेष है, डिगा नही विश्वास ।।
बैठी गिट्टी ढेर पर, करे प्रभू से टेर ।
मै तो निर्धन नार हूँ, खोटी किस्मत *हेर ।। *हेर= निकालो
मजदूरी ही आस है, दूजा उपाय नाय ।
जीवन चौसर खेल है, कारज पासा आय ।।
*रापा टसला साज हैं, कर्म मधुर संगीत । *रापा=फावडा
छेड़ रही है तान वह, करते उससे प्रीत ।।
*रोजी-रोटी प्राण सम, बड़े छोट ना होय । *रोजी-रोटी= आजीविका का साधन
खिलवाड़ करे साथ जो, जीवन भर तो रोय ।।
रोला
बैठी गिट्टी ढेर, एक श्रम थकीत नारी ।
माथे पर श्रम स्वेद, लस्त कुछ है बेचारी ।।
पानी बोतल हाथ, शांत करती वह तृष्णा ।
रापा टसला पास, जपे वह कृष्णा कृष्णा ।।
जीवन है संग्राम, जूझते संघर्षो से ।
सफल होय इंसान, वेद कहते वर्षों से॥
अराधना है काम, काम ही ईश्वर भैय्या ।
पूजे जो निष्काम, पार हो जीवन नैय्या ।।
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श्रीमती सरिता भाटिया
दोहे
दिन भर पत्थर तोड़ती कहलाती मजदूर
पेट साथ है क्या करे भूख करे मजबूर /
ऊपर सूरज तापता , अंतर तापे पेट
पानी पी करती गुजर मिले बहुत कम रेट /
माह जेठ आषाढ में ,पत्थर गिट्टे तोड़
आग बुझेगी पेट की, पाई पाई जोड़ /
कलम बना है फावड़ा ,स्याही तन की ओस
लेखन करती रोज है ,नहीं कहीं अफ़सोस /
जीना इनको देख के , 'गर टूटे विश्वास
श्रम साहस ही श्रमिक के,आभूषण हैं ख़ास /
संशोधित
दूसरी प्रस्तुति
रोला
मजदूरी सम्मान, नहीं है यह लाचारी
सारे घर का बोझ, उठा रही संग नारी
श्रम धूप और धूल संग हैं इसके रहते
तसला और कुदाल,इसकी कहानी कहते /
साड़ी पहने लाल औ' बलाउज है काला
चूड़ी नीली लाल , श्वेत है पहनी माला
पत्थर पर आराम कर रही पीते पानी
कहने को मजदूर, गेह अपने की रानी
दोहे
कुटुम्ब को है पालना, मंहगाई अपार
बनी नार मजदूर है नहीं हुई लाचार /
पत्थर पर है ढासना, बोतल से ले नीर
गिट्टे तसला फावड़ा, कहें हृदय की पीर /
माथे पे बिंदी रची ,किया सभी शृंगार
श्रम से पाले पेट को नहीं मानती हार /
चढ़ी दोपहर जेठ की ,गला गया है सूख
दो घूँट पी के अभी ,मिटी प्यास औ' भूख /
बोतल पानी की लिए, धूल से सने हाथ
बाकी करना काम है साथी के अब साथ /
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श्री अरुण कुमार निगम
दोहे
पथ कोई हो देश का, लगे इलाहाबाद
श्यामल तन नत दृग पुन:, हमको आये याद |
“दृश्य-निराला” पूछता, हुआ कहाँ बदलाव
वही अनबुझी प्यास है, वही रीसता घाव |
लाचारी करती नहीं, भूख-प्यास में भेद
क्षुधा मिटाता नीर तो, तृषा बुझाता स्वेद |
जेठ और बैसाख की, चिल-चिल चिलके घाम
छाँव घमेला* मांगता, रापा भी विश्राम |
टूटे दिल-सी गिट्टियाँ , करें यही फ़रियाद
जिसने तोड़ा है हमें , रहे सदा आबाद |
[घमेला* = लोहे का कड़ाहीनुमा पात्र जिसे मजदूर गिट्टी, रेत, गारा, सीमेंट आदि उठाने के लिए प्रयोग में लाते हैं]
रोला
पाल रही परिवार ,बहा कर रोज पसीना
हालातों से हार, मानती किन्तु कभी ना
बदले कितने राज, खेल अब भी है जारी
सदियों से संताप, झेलती आई नारी ||
हुई साँवली देह , धूप में श्रम कर करके
घर को रही सँवार, रात-दिन खुद मर मरके
आश्वासन सुन कान पके उठ गया भरोसा
है दिन का आहार , चाय के साथ समोसा ||
संशोधित
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श्री रविकर
प्रथम प्रस्तुति
दोहा
मेटे दारिद दारिका, भेंटे दुर्गा मातु ।
सुता पुत्र पति पालती, रख अक्षुण्ण अहिवातु ॥
मुखड़े पर जो तेज है, रखिये सदा सहेज ।
षोडशभुजा विराजिये, कंकड़ की शुभ-सेज ।|
पहन काँच की चूड़ियाँ, बेंट काठ की थाम ।
लोहा लेने चल पड़ी, शस्त्र चला अविराम ॥
छुई-मुई अबला नहीं, नहीं निराला-कोटि ।
कोटि कोटि कर खेलते, बना शैल की गोटि ॥
हाव-भाव संतुष्टि के, ईंटा पत्थर खाय ।
कुल्ला कर आराम से, पानी पिए अघाय ।
रोला
पानी पिए अघाय, परिश्रम हाड़तोड़ कर ।
गैंता तसला हाथ, प्रभावित करते रविकर ।
थक कर होय निढाल, ढाल के संरचनाएं |
पाले घर-संसार, आज माँयें जग माँयें ||
द्वितीय प्रस्तुति-
दोहा
दारु दाराधीन पी, हुआ नदारद मर्द |
दारा दारमदार ले, मर्दे गिट्टी गर्द ||
कंकरेत कंकर रहित, काष्ठ विहीन कुदाल |
बिन भार्या के भवन सम, मन में सदा मलाल ||
अड़ा खड़ा मुखड़ा जड़ा, उखड़ा धड़ा मलीन |
लीन कर्म में उद्यमी, कभी दिखे ना दीन ||
*कृतिकर-शेखी शैल सी, सज्जन-पथ अवरुद्ध |
करे कोटिश: गिट्टियां, हो *षोडशभुज क्रुद्ध ||
दाराधीन=स्त्री के वशीभूत
कृतिकर=बीस भुजा वाला
षोडशभुज=सोलह भुजाओं वाली
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श्री अखण्ड गहमरी
दोहे
हाथन में छाले पड़े ,थामे हाथ कुदाल
कैसी विधना ने चला ना जानू यह चाल
कंकरीट पे बैठ कर,कोसू अपना भाग
पानी से कैसे बुझे लगी पेट की आग
कब जवान बूढ़ी हुई,नहीं है मुझे ज्ञान
कैसी होती मुफलिसी मैं क्या करू बयान
क्या सोचू मैं औ भला,रख कर पास तगाड़
अपनी तो दुनिया यही बाकी जाये भाड़
मैं तो पूजा कर रही,ना समझे नादान
पत्थर पत्थर तोड़ कर ढूढ़ रही भगवान
दूसरी प्रस्तुति
बेटी हूँ मजदूर की,करना है बस काम
रूखी सूखी जो मिले खाकर करें अराम
गिट्टी बालू फेट कर,दिये सिमेंन्ट मिलाय
तब करनी का साथ ले दिये मकान बनाय
नारी हूँ तो क्या हुआ मैं ना किसी से कम
पर गरीबी कि मार से लड़ते रहे हैं हम
मुफलिसि से रोज मेरी होती रहती जंग
तवा तगाड़ कुदार बस देते मेरा संग
सन सन चलती लूह अब शीतलता की आस
जल भी शीतल ना मिले कैसे मिटाये प्यास
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श्री गुमनाम पिथोड़ागढ़ी
दोहे
पानी पिया काट दिए ,गरमी ओ बरसात
बेहतर शिक्षा के लिए ,काम करें दिन रात
नारी निकले काम को ,दुनिया करती शोर
भूखा पेट दिखे नही ,जिस्म घूरते चोर
धूल मिट्टी पत्थर से ,मिले गेहू ,कपास
गाड़ी ,बंगले की नही ,सिर्फ प्रेम प्यास
मजदूर के यौवन को ,घूरे ठेकेदार
एक अकेली नार का , जीना है दुश्वार
बच्चो को स्कूल छोड़ ,माता करती काम
ऐसी कर्मठ औरते सदा रही गुमनाम
संशोधित
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श्री अशोक कुमार रक्ताले
दोहे
सर्दी में भी धूप तन, जला रही है हाय |
अंतर्मन की दाह पर, मों से कहा न जाय ||
पाथर सँग पाथर हुई, लाश बनी है देह |
*करे हलक तर नीर से,जब तक जग से नेह ||
तप्त खदानों में कहाँ, शीतल बहे बयार |
घूंट भरे तन नीर के, तप्त धरे औजार ||
चित्र नहीं खामोश यह, करता कई सवाल |
सामाजिक उत्थान में, क्यूँ नारी बदहाल ||
दो जीवित निर्जीव दो, दो हैं भिन्न अकार |
नीयति का है खेल यह, लगते सब औजार ||
*संशोधित
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श्री बृजेश नीरज
दोहे
पत्थर-पत्थर तन हुआ, पत्थर ही सौगात
पत्थर में दिन बीतता, पत्थर पर ही रात
जीवन का कटु सत्य है, श्रम बिन भरे न पेट
तसला, डलिया ही करे, रोटी का आखेट
इस तन में ही भूख है, इस तन जागे प्यास
जिस तन ढेरों चाहना, उस तन से क्या आस
दो रोटी की चाह में, दिन-दिन खटना काम
भूख पेट की यह मुई, देती कब आराम
जल की बूँदों से बुझी, तन में जागी प्यास
जल की बूँदों से बुझे, धरती की भी प्यास
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श्री धर्मेन्द्र कुमार सिंह सज्जन
दोहा
अनपढ़ रहना हो गया, इतना बड़ा कुसूर!
हूँ जीवन की जेल में, सड़ने को मजबूर।
कुछ धरती की चाय बन, कुछ सूरज का सूप
सूख गई चंचल नदी, ऐसे चमकी धूप
दाँत दिखाता फावड़ा, आँख दिखाती धूप
इनसे बचने के लिए, मैं हो गई कुरूप
गोल हुए पत्थर सभी, सह नदिया की मार
देव बने मंदिर गये, पाया जग का प्यार
पत्थर ढोएगी मगर, लेगी नहीं उधार
फिर भी सूरज, धूप की, दिखा रहा दीनार
संशोधित
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सुश्री महिमा श्री
दोहे
सर पे सूरज तप रहा , झुलस गयी है चाम
जीवन अपना हो गया , मजदूरी के नाम
ले हाथों में फावड़ा , निकली घर से आज
मजदूरी जो मिल गयी , बन जाए सब काज
पहाड़ सा जीवन मिला , पत्थर हो गए हाथ
दिन भर मजदूरी किया , पानी ही सौगात
पेट है लाचार सही , भीख नहीं दरकार
दिन रात गिट्टी ढ़ोय के , पाल रही परिवार
एक मई घोषित हुआ , बने कई कानून
दशा दिशा सुधरी नहीं ,भात कहाँ दो जून
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श्रीमती कल्पना रामानी
दोहे
नारी नर से कम नहीं, चाहे कोई देश।
कहीं उड़े नभ में कहीं, श्रमजीवी का भेष।
तन तप का प्रतिरूप है, मन ज्यों जलधि विशाल।
क्रूर नियति से लड़ रही, हाथों लिए कुदाल।
मृत्युलोक का देख दुख, विधना भी हैरान।
सोच रहा क्या है यही, उसका रचित विधान?
किस कुसूर का दैव्यसे, मिला इसे अभिशाप?
जो धरती सम धारिणी, झेल रही संताप।
सिर सूरज, दिन आग सा, विकल हो रहे प्राण।
डगमग पग होने लगे, बुन-बुन पथ पाषाण।
रोला
बनती हित संतान, योगिनी भोग छोड़ जो,
झेल रही संताप, ताप में हाड़ तोड़ वो।
पग-पग पसरी प्यास, हो रहा तन-मन बेकल।
कुछ बूँदों की आस, शेष बोतल में केवल।
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श्री अविनाश बागड़े
रोले
पत्थर लोहा काठ , नीर सह व्याकुल नारी ।
सब कठोर के बीच , जिंदगी की बलिहारी।।
मिल जाये दो बूँद , पारदर्शी ये बरतन।
लगा होठ के बीच , आस का थामे दामन।।
दोहे
तोड़ तोड़ पत्थर हुई , नारी थक कर चूर।
औजारों को छोड़ कर , नीर धरे मज़दूर ।।
फैली मीलों गिट्टियां , सपना है निर्माण।
मजदूरी की राह में , लोग लगाते प्राण।।
मनरेगा है रस भरा , नेता ठेकेदार !
अफसर भी लूटे मजे, बही जा रही धार !!
बोगस सारा काम है , छल का है बाज़ार !
चारो ओर बिचौलिये , श्रमिक खड़ा बेज़ार।।
किरणे थोड़ी "आप" से ,कब तक चमक दिखाय ?
'कमल' 'हाथ' को थाम के , दे ना इसे बुझाय !!!
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श्री अरुन शर्मा अनन्त
दोहा
लिखवा लाई भाग में, गिट्टी गारा रेह ।
झुलस गई है धूप में, तपकर कोमल देह ।।
प्यास बुझाती बैठकर, नैनों को कर बंद ।
कुछ पानी की बूंद का, रोड़ी लें आनंद ।।
*रोजी रोटी के लिए, भारी भरकम काम ।
भोर भरोसे राम के, सांझ भरोसे राम ।।
भय कुछ खोने का नहीं, ना पाने की चाह ।
कार्य कार्य बस कार्य में, जीवन हुआ तबाह ।।
जितना किस्मत से मिला, उतने में संतोष ।
ना खुशियों की लालसा, ना कष्टों से रोष ।।
*संशोधित
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श्रीमती राजेश कुमारी
दोहे
नारी पत्थर सी हुई ,दिन भर पत्थर तोड़।
उसके दम से घर चले ,पैसा- पैसा जोड़॥
राह तकें बालक कहीं ,भूखे पेट अधीर।
पूर्ण करेगी काम ये ,पीकर थोडा नीर॥
तोड़- तोड़ के गिट्टियां ,हुई सुबह से शाम।
पेट अगन के सामने ,नहीं जटिल ये काम॥
जीवन है संघर्षमय ,किस्मत से बेहाल।
इन हाथों में शस्त्र हैं ,तसला और कुदाल॥
तोड़-तोड़ पत्थर करें ,उच्च भवन निर्माण।
खुद की सीली झोंपड़ी,जिसमे निकले प्राण॥
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श्री विंध्येश्वरी पाठक ’विनय’
दोहा
श्रम देवी का रूप धर, करती नारी काम।
पुरुष हुए बेकाम जब, थामे नारि लगाम॥
ऊपर चिलचिल धूप है, पत्थर नीचे तप्त।
करते करते काम ये, हो गई थक कर पस्त॥
रोला छंद-
त्रस्त तृषा से प्राण, तोड़ती पत्थर नारी।
ऐसे तत्पर कर्म, जाउँ तुम पर बलिहारी॥
कैसा दुर्दिन दैव, आज तुमने दिखलाया।
तोड़ रही पाषाण, सुकोमल सुन्दर काया॥
पति इसका बेकार, सुरा पीकर टुन होगा।
या होगा बीमार, खाट पर लेटा होगा॥
या शायद वह साथ, पास ही छाया दिखती।
वह भरता पाषाण, और ये सिर पर ढोती॥
संशोधित
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श्री सत्यनारायण सिंह
दोहे
पारा गर्मी का चढा, तन मन झुलसा धूप
गिट्टी ढो श्रमिका थकी, गया कंठ तन सूख
सूखे कंठ हजार तो, सींचू बार हजार
करूँ प्रशस्त पथ देश का, धारत प्रण सौ बार
श्यामल अंगिया श्यामला, धार रक्त परिधान
शांत क्लांत मन बाँचती, विधि का गूढ़ विधान
विधना से हारी नहीं, जीती पीकर नीर
तसला गैंती फावड़ा, देते मन को धीर
राह कठिन है कर्म की, चलें निराले लोग
देह साँवली साधती, आज निराला योग
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आ० सौरभ भाई जी
ओबीओ ’चित्र से काव्य तक’ छंदोत्सव" अंक- 34 की समस्त रचनायों का यह संकलन और उस पर त्रुटियों को चिन्हित करने का यह दुरूह कार्य निस्संदेह वंदनीय है. यह मंच के प्रति आपकी संलग्नता और साहित्य व् छंदों के प्रति आपकी प्रति प्रतिबधता का परिचायक भी है. आयोजन के दौरान पढ़ी/छूटी रचनायों को दोबारा पढ़ना बेहद सुखकर रहा, जिसके लिए मैं तह-ए-दिल से आपको बधाई देता हूँ.
इस बार का आयोजन कई मायनों में विलक्षण था, एक तो इस दफा रचनाएं छंद विशेष ( दोहा और रोला) पर आधारित मांगी गई थीं. दूसरे, इन दोनों छंदों के सन्दर्भ में एक विस्तृत जानकारी भी रचनाकारों के साथ साझा की गई थी. ऐसी जानकारियाँ अक्सर आलेख के रूप में ही प्रस्तुत करने की परिपाटी रही है. लेकिन यह इस मंच की विशेषता और भारतीय सनातनी छंदो के प्रति मोह और सम्मान का सूचक ही कहा जायेगा कि जहाँ रचना धर्मियों को किसी तरह के मुगालदे से बचाने का स्तुत्य प्रयास किया गया. इसके लिए भी आपको हार्दिक बधाई निवेदित कर रहा हूँ.
आप ही की तरह मैं भी इस बात से आहत हूँ कि कई छंदकार इतनी विस्तृत जानकारी दिए जाने के बावजूद भी सतही प्रयास करते दिखे जो ऐसे लोगों के अगंभीर दृष्टिकोण (या यूँ कहें कि टाइम-पास प्रवृत्ति) का परिचायक है. ऊपर से तुर्रा यह कि ये साथी इस अपेक्षा में दिखे कि उनकी किसी भी ऑल-फ़ॉल रचना को न केवल शौक से पढ़ा जाये, वाह वाही की जाये बल्कि उनकी कमियों को दूर भी किया जाये।
लेकिन उसके साथ ही यह भी ख़ुशी की बात है कि बहुत से रचनाकारों ने चित्र के "नख मुख" से ऊपर उठ कर उस चित्र के पीछे के फलसफे को समझा और उसको सफलता सुन्दर शब्द भी दिए. चित्र पर यदि काव्य करना हो तो उस चित्र की आत्मा तक पहुंचना नितांत आवश्यक हो जाता है. आत्मा में उतरे बिना कालजयी साहित्य का सृजन सम्भव है क्या ?
अनेक बार इस मंच से बताया जा चुका है कि इन विशेष आयोजनो में बिना तैयारी की प्रतिभागिता केवल भद्द ही पिटवाया करती है. जिस विधा या छंद पर आयोजन हो उस विधा/छंद से सम्बंधित रचनाएं पहले खूब पढ़ी जाएँ, उन पर चर्चा/सवाल किये जाएँ जब अच्छी जानकारी मिल जाये तो आयोजन में कूद पड़ने से पहले उन छंदों की अन्य रचनायों को अपने ब्लॉग पर पोस्ट कर विद्वान साथियों की राय ली जाये। कमियों बेशियों को दूर करने के बाद ही आयोजनो की शोभा बढ़ाएं तो रचनाकार और मंच दोनों का ही सम्मान बढ़ेगा। हमें याद रखना होगा कि इस साईट से के इलावा और भी सैकड़ों लोग हमारे आयोजनो पर पैनी नज़र गड़ाए बैठे रहते हैं. ऐसे में एक भी अस्तरीय रचना मंच और लेखक की विश्वस्नीयता पर कुठाराघात साबित हो सकती है.
//कई छंदकार इतनी विस्तृत जानकारी दिए जाने के बावजूद भी सतही प्रयास करते दिखे जो ऐसे लोगों के अगंभीर दृष्टिकोण (या यूँ कहें कि टाइम-पास प्रवृत्ति) का परिचायक है.//
आपने स्पष्ट शब्दों में कई मूल तथ्य को परिभाषित कर दिया है, आदरणीय योगराज भाईजी.
यह भी सही सवाल मन म्ं उठता है कि ऐसे कितने प्रतिभागी रचनाकार हैं जो इस रिपोर्ट में साझा हुए सुझावों या निर्देशन से लाभ उठा पाये हैं ?
अपने अधपके छंदों यानि दोहों और रोला से ब्लॉग और सोशल साइटों पर वाहवाही ही अर्जित नहीं कर रहे हैं बल्कि मजे की बात यह है कि बिना सटीक छंद मात्रा का अभ्यास किये कइयों की काव्य किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. अब ’इतना आगे बढ़ चुके’ रचनाकारों से यह अपेक्षा करना कि वे अपनी समझ में मूलभूत सुधार का आग्रह रखेंगे यह हमारे मंच की उच्चापेक्षा ही होगी. लेकिन जो रचनाकार नये हैं और वाकई काव्य-कर्म पर अभ्यास करना चाहते हैं उन्हें गंभीर होना ही चाहिये था.
वैसे मैं यह अवश्य कहूँगा कि इस मंच के माध्यम से कॉपी-पेस्ट की परिपाटी के ज़माने में यदि हम कई-कई तथ्य प्रस्तुत कर रहे हैं तो यह वैसा ही कर्म है जो कि आने वाले समय और जन के लिए भारतीय परंपरा में मान्य है.
सादर
आदरणीय सौरभ जी,
सबसे पहले तो क्षमा कीजियेगा कि इस बार मैं संकलन नहीं भेज सकी. दरअसल मुझे यह लगा कि भाई रामशिरोमणि जी ये दायित्व उठाने की ज़िम्मेदारी ले चुके हैं... और जब तक मैंने आपसे पूछा तब आपने कहा कि संकलन तैयार हो चुका है..... बिना पूछे नहीं करना चाहती थी क्योंकि कुछ एक बार अतिउत्साह में दो-दो लोग भी संकलन कार्य कर चुके हैं.
आयोजन के दौरान मैं भी बहुत व्यस्त रही और सिर्फ दूसरे दिन शाम बाद सभी रचनाओं को पढ़ उन पर टिप्पणी ही कर सकी. एक बात बिना झिझक के साझा करना चाहूंगी कि मुझे इस बार के छान्दोत्सव आयोजन के लिए बहुत उत्साह था.. आपने आयोजन की भूमिका में दोहा और रोला छंदों के बारे में सौदाहरण बहुत ही सुन्दर जानकारी विस्तार से साझा की थी, प्रदत्त छंदों के शिल्प के बारे में एक ही जगह इतनी विस्तृत जानकारी अन्यत्र दुर्लभ ही है. साथ ही आपने जो अंतर गेयता को साधने के लिए शब्द समुच्चयों में कलों की गुह्य बात इतनी सहजता से प्रस्तुत की थी वह भी किसी भी छंद प्रयासकर्ता के लिए बेहद महत्वपूर्ण है.
इस बार के आयोजन में मुझे लगा था कि साहित्यिक संतृप्ति मिलने वाली है. शिल्प पर उन्नत चर्चाएँ होंगी, दोहा दर दोहा सीखने का मौहौल बनेगा और हम सब भरपूर लाभान्वित होंगे.... लेकिन मुझे बहुत निराशा हुई ये देख कर कि इतनी उन्नत भूमिका को पढ़े बिना , समझे बिना, आत्मसात किये बिना ही लोग दोहा, रोला रचने लगे.. मात्रिक गणना जैसी मूल बातें, रोला के पदों की मात्रा के विस्मय, में ही रचनाकार गंभीर नहीं दिखे तो कलों की बातें तो कहाँ ही गंभीरता से समझते और उस पर प्रयास करते... खैर ऐसा कोइ रचनाकार अपने रचनाकर्म और प्रतिभागिता से संतुष्ट कैसे हो सकता है, ये बात मेरे लिए तो एक पहेली सी ही है.
दागो और भागो वाले प्रतिभागियों और अपेक्षित सुधार बताये जाने पर भी अपने छंदों में सुधार न कर पुनः उन्ही गलतियों को दोहराते हुए दूसरी प्रविष्टियाँ प्रस्तुत करने वाले रचनाकार किस तरह से एक सीखने के सुअवसर को खो देते हैं , ये देख उनके प्रति बेहद अफ़सोस भी होता है. वाहवाही बटोरने की या अपने आप को व्यक्त करने की आधी अधूरी कोशिश को प्रस्तुत करने की ऐसी भी क्या बेसब्री? इतने बेसब्र तो शायद Thomas Edison भी Electric bulb invent करके नहीं हुए होंगे... :-)))
यह समय रचनाकारों द्वारा खुद का आत्ममंथन कर अपने अंदर के रचनाकार की मानसिकता को टटोलने का है? उपलब्ध जानकारी का लाभ ही नहीं उठाया गया.. अन्यथा आप और हम जानते हैं की हम लोगों ने इस अमृत-तुल्य जानकारी को एक एक बूँद यहाँ वहां से कैसे एकत्रित किया है, और हर बार ऐसी कुछ नयी जानकारी ने हमें कितनी आत्मिक तृप्ति और हमारे अंदर के रचनाकार को कितना विस्तार दिया है.
इस बार के छन्दोत्सव नें कुछ नए छन्द्प्रयासकर्ता भी दिए हैं... जिनको छान्दसिक प्रयास करते देख खुशी भी हुई. इस आयोजन में आदरणीय प्रधान सम्पादक महोदय के प्रतिक्रियात्मक दोहों और रोलो नें जिस प्रकार से उत्सव को एक ऊंचाई प्रदान की उस पर मन बहुत आनंदित हो उनके प्रति श्रद्धानत हुआ है.
छन्दोत्सव की सुन्दर भूमिका के साथ ही सार्थक रिपोर्ट व संकलन के महती कार्य के लिए आपको सादर धन्यवाद आदरणीय.
आयोजनों के परिचालन और संवर्द्धन के क्रम में आपका हार्दिक सहयोग सदा से मिलता रहा है आदरणीया प्राचीजी.
आपने सही संकेत किया है कि इस तरह के आयोजनों में ’चलता है’ का ढंग प्रतिभागियों के लिए उचित नहीं है.
अधिक दुःख तो तब होता है जब छंदों पर आये दिन काम करने वाले रचनाकार आयोजनों में भाग लेने से बचते हैं.
या, कई पाठक-रचनाकार मात्र इस लिए आयोजनों में नहीं आते कि उन्होंने रचनाएँ नहीं प्रस्तुत की हुई होती हैं. कइयों ने अपने-अपने कोटर बना रखें हैं कि वे मात्र ग़ज़ल या छंद या छंदमुक्त में ही रचना कर्म करेंगे. उस कोटर के अलावे की रचनाओं पर या आयोजनों से आँख-मुँह फेरे निकल जायेंगे.
इस् मनोवृत्ति पर क्या कहा जा सकता है ?
सादर
सर्वप्रथम इतनी सार्थक विस्तृत रिपोर्ट के लिए आ.सौरभ जी को हार्दिक बधाई देना चाहूंगी | इस बार नए कलेवर में छन्दोत्सव जहां दिलचस्प लगा वहीँ सीखने सिखाने की द्रष्टि में एक उत्कृष्ट प्रयोग लगा इतने सुलभ तरीके से तो किसी विद्यालय में भी नहीं सिखाते हिंदी साहित्य में गंभीर दिलचस्पी रखने वालों के लिए तो ये अलादीन का चिराग है बशर्ते वो इसके विधान से पहले पूर्णतः ज्ञानोपार्जन करके लिखे.बहुत अधिक व्यस्तता के कारण जिनकी रचनाएँ छुट गई थी इस संकलन में पढ़ी अपनी रचना पर कुछ लोगों की टिप्पणियां भी नहीं पढ़ पाई थी जैसे --आ. सौरभ जी ,प्राची जी ,आ.अशोक रक्ताले जी ,ब्रिजेश नीरज जी ,आ. गणेश बागी जी ,अविनाश बागडे जी ,आप सभी का अपनी स्नेहिल प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार.
आदरणीय योगराज जी का हार्दिक आभार प्रकट करना चाहुंगी जिन्होंने शुरू से अंत तक महोत्सव में अपने प्रतिक्रिया स्वरुप दोहों से समा बांधे रखा और आयोजन को सफल बनाया.सभी आयोजकों और प्रतिभागियों को हार्दिक बधाई.
//इस बार नए कलेवर में छन्दोत्सव जहां दिलचस्प लगा वहीँ सीखने सिखाने की द्रष्टि में एक उत्कृष्ट प्रयोग लगा इतने सुलभ तरीके से तो किसी विद्यालय में भी नहीं सिखाते हिंदी साहित्य में गंभीर दिलचस्पी रखने वालों के लिए तो ये अलादीन का चिराग है बशर्ते वो इसके विधान से पहले पूर्णतः ज्ञानोपार्जन करके लिखे.//
अपके इन ऊर्जस्वी शब्दों और वाक्यों के लिए हार्दिक आभार आदरणीया राजेश कुमारी जी
सादर
ओ बी ओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव अंक -- ३४ की समस्त रचनायाओं का संकलन एवं त्रुतिओं को चिन्हित करने के साथ साथ जिस बारीकी से यह रिपोर्ट आदरणीय श्री सौरभ सर जी के द्वारा प्रस्तुत की गई वह अत्यंत सराहनीय है. सभी रचनाओं को एक साथ पढ़ने में जो आनंद आता है उसका वर्णन करना कठिन हो जाता है. इस बार छंदोत्सव नए कलेवर के साथ आया और ह्रदय तृप्त कर गया. इस छंदोत्सव में ओ बी ओ के प्रधान संपादक आदरणीय श्री योगराज सर की उपस्थिति एवं प्रत्येक रचनाकारों की रचनाओं पर उनके आशीर्वाद स्वरुप प्राप्त प्रतिक्रिया ने आयोजन में चार चाँद जड़ दिए.आपका आशीष यूँ ही प्राप्त होता रहे. आदरणीय श्री योगराज सर एवं सौरभ सर आप दोनों का हार्दिक आभार, समस्त प्रतिभागी गुरुजनों, अग्रजों , मित्रों को हार्दिक शुभकामनाएं एवं प्रिय पाठकों का हार्दिक आभार.
हार्दिक धन्यवाद भाई अरुन अनन्तजी.
//मैं व्यक्तिगत रूप से इस मंच पर कुछ कार्यभार लेने के लिये तत्पर हूँ किन्तु इंटरनेट का मोबाइल उपभोक्ता होने के कारण असमर्थ हो जाता हूँ।//
यह एक महती समस्या है भाई जी.
वैसे भी आप इस मंच की कार्यकारिणी के सदस्य हैं और आपसे बहुत कुछ अपेक्षायें हैं इस मंच को. आपको यह मालूम भी है. आप अपने दायित्व की पूर्ति समयानुसार करें, यह सहयोग भी कम महती नहीं है.
यह अवश्य है कि कोई कार्य निरंतरता से सम्पन्न हो तभी उसकी महत्ता है. अन्यथा एक बार के जोश में किया गया कार्य कर्ता की हल्की छवि प्रस्तुत करता है. हम प्रबन्धन के सदस्य इसी एक बार के जोश वाले कार्यों से बचते हैं तभी मंच के कई-कई कार्य सम्पन्न हो पाते हैं.
मुख्य प्रबन्धक द्वारा सूचनायें भेजे जाने पर भी यदि सदस्य अपने दायित्व के प्रति लापरवाह दिखें तो समझ सकते हैं हम कितने बड़े दवाब में होते हैं. आपका अनवरत सहयोग मिलता रहता है उसके लिए हार्दिक धन्यवाद.
शुभ-शुभ
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
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