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इन्दु अपने मंडल की पेंशन प्रमुख थी, किसी भी बुजुर्ग महिला या बहन को पेंशन लगवानी होती तो झट उससे संपर्क करतीं ....

अपने मोहल्ले की अपनी कॉलोनी की सभी महिलाओं की चाहे वो वृद्ध हो, विधवा हो या तलाकशुदा हो उसने बिना किसी अड़चन के पेंशन लगवा दी थी.

समय ने करवट ली, उसके पति का आकस्मिक देहांत हो गया ...

कुछ समय बीत जाने  पर उसकी एक ख़ास सहेली ने उसे सुझाव दिया ...

"भाभी आप ने पेंशन के लिए अपना फॉर्म भरवाया ?"

थोड़ा चुप रहकर फिर कहा ..

"यह तो सरकार दे रही है लेने में क्या हर्ज है ?"

इंदु मूक खड़ी थी ...वो उसको कोई जवाब नहीं दे पाई थी जबकि उसने कुछ गलत नहीं कहा था पर ना जाने क्यों उसे चुभ सी गई थी यह बात और उसके दिल से हूक सी उठी थी ...

मौलिक एवं अप्रकाशित

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 23, 2014 at 4:13pm

सामाजिक अस्मिता विशिष्ट हो गयी संज्ञा के आम होते ही असंतुलित हो उठती है. एक अच्छी लघुकथा के लिए हार्दिक धन्यवाद आदरणीया.

सादर

Comment by Sarita Bhatia on March 7, 2014 at 8:18pm

आदरणीय भाई विजय जी इस प्रेरक अनुमोदन के लिए हार्दिक आभार 

Comment by Sarita Bhatia on March 7, 2014 at 8:11pm

शुक्रिया शुभ्रांशु जी 

Comment by Sarita Bhatia on March 7, 2014 at 8:11pm

आदरणीय जितेन्द्र जी हार्दिक आभार 

Comment by विजय मिश्र on March 6, 2014 at 5:53pm
सचमुच ,इस रिक्ति को किसी सहयोग अथवा अनुदान से नहीं भरा जा सकता है ,यही बोध अनावृत हो उठा होगा और मनको बात चुभ गयी |आप बीतती है तो मर्मबोध होता है| बहुत सुंदर सरितादीदी साधुवाद |
Comment by Shubhranshu Pandey on March 6, 2014 at 11:51am

आदरणीय सरिता जी, 

आर्थिक मदद और सामाजिक मान्यताओं को प्रस्तुत करते हुये सुन्दर कथा. 

सादर.

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on March 5, 2014 at 11:37pm

बहुत मार्मिक लघुकथा, बधाई आदरणीया सरिता जी

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on March 5, 2014 at 4:46pm

क्यों चुभ गयी , आदरणीया जी 

Comment by Sarita Bhatia on March 4, 2014 at 3:46pm

शुक्रिया आदरणीय श्याम जी 

Comment by Shyam Narain Verma on March 4, 2014 at 11:25am
सुन्दर लघुकथा हेतु बधाई.....

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