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मंच संचालक
राणा प्रताप सिंह
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भीड़ भरी इस दुनिया में, दिल ये अकेला लगता है
शाम ढले इस सुने घर में मेला लगता है..
क्या कहें अब रिश्तों की बातें , अब रिश्तों में वो बात कहाँ
सरे बाज़ार बेटे बेचने वालों का ,जबसे ठेला लगता है..
कल जिस बाप के कंधे पे बैठ , देखा था दुनिया के मेले को
आज उन्ही बेटों को अपना बाप झमेला लगता है ..
कल तक जो बादाम की गिरियाँ बड़े शौक से खाते थे
महंगाई में उन्हें फलों का राजा केला लगता है ..
ऊपर वाले ने भेजा था सबको इन्सान बना के धरती पर
और यहाँ हिन्दू और मुस्लिम का अलग अलग मेला लगता है ..
दुनिया भीड़ भरी लगती थी कल जिसको मयखाने में
आज मयखानों की भीड़ में वही शख्स अकेला लगता है ..
एक राँझा था जिसने दुनिया को इश्क करना सिखाया था
हीर बहुत हैं पर वो राँझा आज अकेला लगता है ..
एक मुमताज की कब्र पे भीड़ लगा करती है अब भी
और खुद ही वो ताज क्यूँ आज अकेला लगता है..
ताज ताज चिलातें होंगे वो शख्स खुदा के दरबार से
जिनके हाथो की क़ुरबानी से ताज अजूबा-और-अलबेला लगता है . ..
जख्म खाता है "राजीव" और चुपचाप इसे सह जाता है
क्यूंकि हर बार सीने - माथे पे, अपनों का ही पत्थर -ढेला लगता है .....
Rajeev Kumar Pandey
एक मुमताज की कब्र पे भीड़ लगा करती है अब भी
और खुद ही वो ताज क्यूँ आज अकेला लगता है..
shaandar prastuti rajeev bhai...maja aa gaya.....likhte rahen aisehi
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