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...गुनगुनाने दो पीर को...

गुनगुनाने दो पीर को...


गुनगुनाने ..दो पीर को
प्यासे अधर अधीर को
नयनों के .इस नीर को
मधुर स्मृति समीर को
हाँ , गुनगुनाने दो पीर को ….


रांझे की …उस हीर को
भूखे ..इक ..फकीर को
मरते .हुए …जमीर को
प्यासे नदी के .तीर को
हाँ , गुनगुनाने दो पीर को ….


घायल नारी के चीर को
पंछी के बिखरे नीड़ को
शलभ की ..तकदीर को
घुट घुट मरती भीड़ को
हाँ , गुनगुनाने दो पीर को ….

सुशील सरना

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Sushil Sarna on August 28, 2014 at 12:40pm

आदरणीय सौरभ जी रचना पर आपकी आत्मीय प्रतिक्रिया  का हार्दिक आभार 

Comment by Sushil Sarna on August 28, 2014 at 12:39pm

आदरणीय जितेन्द्र गीत जी रचना पर आपकी स्नेहिल प्रशंसा का हार्दिक आभार 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 28, 2014 at 12:48am

आप पीर को गुनगुनाते आये हैं यह संतुष्टिदायी है, आदरणीय.  ईश्वर सदा सहाय्य हों तथा आप सदा प्रसन्न रहें.

सादर

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on August 27, 2014 at 10:20am

फिर से आपकी एक ओर सुंदर रचना पढने को मिली, बहुत अच्छी लगी. बधाई आपको आदरणीय शुशील जी

Comment by Sushil Sarna on August 26, 2014 at 7:09pm

आदरणीय डॉ गोपाल नरायन श्रीवास्तव  जी रचना पर आपकी आत्मीय प्रशंसा का और मेरी अनुपस्थिति को महसूस करने का हार्दिक आभार। मुझे पिछले २-३ माह से फ्रोजेन शोलडर का असहनीय दर्द था जिसकी वजह से मैं मंच पर सक्रिय रूप से भाग न ले सका। अभी भी थेरेपी चल रही है।  अपना स्नेह बनाये रखें।  धन्यवाद  

Comment by Sushil Sarna on August 26, 2014 at 7:04pm

आदरणीय    narendrasinh chauhan   जी रचना पर आपकी स्नेहिल प्रशंसा का हार्दिक आभार 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 26, 2014 at 5:34pm

बहुत दिन बाद अपनी पीर लेकर  आए सरना जी i  साधुवाद i

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