हर दरिन्दे के कयासों को ज़बर करती है
हाँ, निग़ाहों की असमता ही कहर करती है ॥१॥
खूब दावा कि उठा लेंगे ज़माना सिर पे
हौसला पस्त हुई बात मग़र करती है ॥२॥
मोमबत्ती लिए लोगों के जुलूसों में भी
दानवी भूख कई आँखों में घर करती है ॥३॥
ये कहाँ सच है कि रेतों में नमी ही दोषी
रेत सूखी भी रहे जान दुभर करती है ॥४॥
जो न मरती है न जीती है, सुनो, वो औरत
बेहया काठ सी बस उम्र गुज़र करती है ॥५॥
ज़र्द आँखों की ज़ुबां और कहो क्या सुनता
शर्म वो चीज़ है, ऐसे में असर करती है.. ॥६॥
हालिया दौर में बेटी के पिताओं की हर
रात अंगारों के बिस्तर पे बसर करती है ॥७॥
शह्र के ज़ब्त दरिन्दों में है वो शातिर भी
गाँव में एक, खुली माँग सँतर करती है ॥८॥
फसले गुल जब कभी गुलशन पे नज़र करती है l
गुन्चे गुन्चे की महक दिल पे असर करती है ll
जीस्त तन्हाई के सहराओं में तपती है मगर l
रात अंगारों के बिस्तर पे बसर करती है ll
तुम ने सोचा है कभी हम तो यही कहते है l
मुनफ़रिद हो कोई ख़ुशबू तो असर करती है ll
काम से लौट के जब शाम को घर आता हूँ l
लहर बच्चों में मसर्रत की गुज़र करती है ll
भूल जाता है जब इंसान इबादत तेरी l
फ़िक्र दुनिया की उसे ज़ेरो ज़बर करती है ll
मैं जो ठहरूं भी किसी मोड़ पे क्या फर्क कोई l
मेरी तख़ईल तो हर सम्त सफ़र करती है ll
मर के जीता है ये इन्सां कभी सोचा "गुलशन" l
आती जाती हुई हर सांस खबर करती है ll
दिल को ज़ख्मी तो कभी चाक जिगर करती है।
मुझपे क्यूँ ज़ुल्म तेरी तीरे नज़र करती है॥
दिन तो कट जाता है दुनिया के झमेलों में मगर,
“रात अंगारों के बिस्तर पे बसर करती है”॥
मौत के मुंह से निकल आता है अक्सर इंसान,
जब दुआ चाहने वालों की असर करती है॥
जब भी जाती है किसी और से मिलने जुलने,
दिल जलाने के लिए मुझको ख़बर करती है॥
हर तरफ दर्द है सन्नाटा है तनहाई है,
मुझको अब तेरी कमी ज़ेरो-ज़बर करती है॥
जब भी आती है वो चुपके से मेरे कमरे में,
मेरी अलसाई हुई शब को सहर करती है॥
कौन कहता है के तन्हा है सफ़र में “सूरज”
आज भी याद तेरी साथ सफ़र करती है॥
राह में वो चलती और फिकर करती है,
हैं वफादार कहाँ प्यार मगर करती है||
बुझ गई लौ जलती थी हर के सीने में,
मायूसी ही दिल में आज बसर करती है||
दोषियों पर सरकारें नरमी रक्खें तो,
कोई परवाह नही कुदरत सर करती हैं||
लाख शोले बुझते हो भ्रम से वादों से,
रात अंगारों के बिस्तर पे बसर करती है||
छोडना ना जिद रण में उतरे दीवानो,
दामिनी आज भी राहों में सफर करती है||
SANDEEP KUMAR PATEL
जिन्दगी जिनकी अमा में ही सफ़र करती है
उनकी राहों में अना रोज ग़दर करती है
चाहता कौन है औलाद नफ़र हो मेरी
भूख जालिम है जो बच्चों को नफ़र करती है
डोर के घिसने से पत्थर पे निशाँ पड़ते हैं
उसकी कोशिश है ये कोशिश तो असर करती है
दूर होती है तो मुश्किल से कटे इक पल भी
साथ बैठे तो वो सदियों को पहर करती है
माँ मेरी दूर से भी मुझको दुआएं देकर
गर्दिशें फूंक कर रातों को सहर करती है
जिसके अपने ही दगाबाज हुए हों उनकी
रात अंगारों के बिस्तर पे बसर करती है
"दीप" मजलूम दुआ दे तो मिटे गम पल में
बद-दुआ उसकी ही पल भर में कहर करती है
अमा=गुमराही, कुमार्ग, अना=घमंड, नफ़र=मजदूर
संदीप पटेल "दीप"
जब वो शरमा के मेरी सिम्त नज़र करती है,
उसकी प्यारी सी अदा दिल पे असर करती है |
नींद उसको भी नहीं आती मेरी फ़ुर्क़त में,
रात अंगारों के बिस्तर पे बसर करती है |
इस ज़माने का उसे डर तो बहुत हे लेकिन,
मुझको पाने का वो अरमान मगर करती है |
दूर तुझसे मैं चला जाऊं कहीं भी लेकिन,
ये तेरी याद मेरी साथ सफ़र करती है |
मेरी तस्वीर वो सीने से लगाकर हसरत,
मेरे जीने की दुआ शामो सहर करती है |
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राणाभाई, आपकी मेहनत इस बार विशेष रंग लायी है. मिसरों को कसौटी के संदर्भ में व्यक्त करने के साथ-साथ अप्रचलित शब्दों के मायने भी आपने दिये हैं. इस हेतु हार्दिक धन्यवाद.
आगे के आयोजनों में सभी प्रतिभागियों से यह अपेक्षा रहेगी कि अपनी ग़ज़लों में प्रयुक्त अप्रचलित शब्दों के अर्थ स्वयं दे दिया करें ताकि पाठक ग़ज़ल (रचना) का भरपूर आनन्द ले सकें.
सद्यः समाप्त मुशायरे की सभी ग़ज़लों को एक जगह संकलित करने के लिए आपका पुनः धन्यवाद और हार्दिक बधाई.
दूर होती है तो मुश्किल से कटे इक पल भी
साथ बैठे तो वो सदियों को पहर करती है
माँ मेरी दूर से भी मुझको दुआएं देकर
गर्दिशें फूंक कर रातों को सहर करती है
वाह वाह
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