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आदरणीय मनन कुमार जी, प्रदत्त विषय से इत्तर प्रस्तुत हुई लघुकथा अभी बहुत ही समय चाहती है, इस प्रयास पर बधाई प्रेषित है.
आपकी सहभागिता और प्रयासरत होना श्लाघनीय है, भाई मननजी. विश्वास है, आपने इस आयोजन की अन्य प्रस्तुतियों को देखा है.
शुभेच्छाएँ.
मनन जी
आपने कोशिश की i आगे भी करते रहें . मंजिल मिलेगी इन्ही प्रयासों से . सादर
आदरणीय मनन जी,
कल्लू की परेशानी को बयां करते लघुकथा के प्रयास पर बहुत बहुत बधाई.
बहुत से लोग फंस जाते हैं ऐसी कम्पनियों के चक्कर में और जमा पूंजी भी लूटा बैठते हैं , अच्छी लघुकथा आदरणीय ..
“पहचान”
“जियो मुन्नीबाई ! पटाखा हो पटाखा कभी हमारी भी रातें..” कहते हुए सेठ जी ने ज्यूँ ही हाथ पकड़ मुन्नीबाई को खींचना चाहा, उसके हाथ में गुदे कुलदेवता के चिह्न को देख मानो बिच्छु ने डस लिया हो उन्हें “निर्मला..” बस यही निकला मुँह से |
“कहाँ चल दिए साहिब?” मुन्नीबाई पीछे से आवाज दे रही थी | सेठ जी पसीने से तरबतर मुन्नीबाई के कामुक चेहरे में अपनी खोई बेटी निर्मला के मासूम चेहरे को तलाशते पैदल ही चले जा रहे थे |
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“मौलिक एवं अप्रकाशित ”
एक पहचान ये भी .....हाथ पर बने अपने कुल देवता के टेटू को देख कर सब अय्याशी धराशायी हो गई वर्ना वो किसकी बेटी है इससे कोई सरोकार कहाँ .....एक विशेष घटनाक्रम पर आधारित अच्छी कहानी है सुधीर द्विवेदी जी बहुत- बहुत बधाई
हार्दिक आभार आ. राजेश कुमारी जी
जोर का झटका हाय जोरो से लगा ...अच्छी लघुकथा हुई है आदरणीय सुधीर जी बधाई स्वीकारें. यह अवश्य है कि यह प्लाट फिल्मों और उपन्यासों में मौजूद है.
हार्दिक आभार आ. गणेश जी
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