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कथा बहुत ही सुंदर ढंग से प्रस्तुत हुई है आदरणीय राजेन्दरजी , मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें।
राजेंद्र कुमार जी ,बहुत प्रभावशाली प्रस्तुति हुई प्रदत्त विषय से न्याय करती इस लघु कथा हेतु दिल से बधाई |
लघुकथा – पहचान
“केशवजी, आप का नाम साहित्यकारों की इस लिस्ट में नहीं है. इसलिए आप ‘वीआईपी’ की लाइन में नहीं बैठ सकते है . आप पीछे जाइए .”
“मगर प्रेमचंद्र द्वितीय का नाम तो होगा इस लिस्ट में ?”
“जी, हाँ . उन के स्वागत के लिए यह कार्यक्रम रखा गया है . मगर आप ?”
“मैं उस का पिता .” कहते हुए केशव जी को लगा उन का वजूद खत्म हो गया .
“अच्छा आप ! आइए , बैठिए. आप के लिए तो यहाँ विशेष व्यवस्था की गई है.”
सुनते ही उन की आँखे इस नई पहचान के कारण छलछला आई .
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३०-०५-२०१५
मॊलिक व अप्रकाशित
Er Nohar Singh Dhruv 'Narendra' जी आप ने कथा को सुन्दर कह दिया , ह्रदय पसंद हो गया.
आप की सद्भावना के लिए आभारी हूँ.
ओम प्रकाश जी
अच्छी कथा हुयी है . सादर .
डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी आप ने लघुकथा को अच्छा कह दिया तो मेरी मेहनत सफल हो गई. अन्यथा मैं असमंजस में था की कथा पोस्ट करू या न करू ?
आप के स्नेह के प्रति आभार .
आँखे शायद ख़ुशी से छलकी होंगी .किसी भी पिता के लिए ये गौरव के क्षण होतें हैं जब वह अपने संतान के नाम से जाना जाये .
Rita Gupta जी आप को मेरी लघुकथा में पिता के लिए गोरव के क्षण महसूस हुए की वह संतान के नाम से जानी गई. इस ने मेरे प्रयास को सार्थक कर दिया. और आप की समीक्षा ने मेरा हौसला बढ़ा दिया.
आभार आप का
बचपन में पुत्र पिता से पहचाना जाता है और बुढ़ापे में पिता पुत्र से । और ऐसे में पिता का भावुक होना स्वाभाविक है , बहुत अच्छी लघुकथा आदरणीय..
vinaya kumar singh जी आप की समीक्षात्मक टिपण्णी पढ़ कर अभिभूत हूँ. बचपन और बुढ़ापे में इन्सान की पहचान बदल जाती है.
आप की सद्भावना के लिए आभार .
आदरणीय ओमप्रकाश जी
बहुत बढ़िया लघुकथा हुई है हार्दिक बधाई
पाठकीय छूट लेते हुए इस लघुकथा को दो स्तरों पर समझने का प्रयास कर रहा हूँ -
1. सामान्य स्तर कि पुत्र की तरक्की और पुत्र के नाम से पहचाने जाने पर ख़ुशी से आँखे छलछला आई
2. केशव और प्रेमचंद (रीति काल के व्याकरणिक छंद रीति पालक और आधुनिक वैचारिक युग के प्रतिनिधि सुत) द्वितिय कहकर काल और आगे बढ़ा लिया इन प्रतीकों पर कथा को अपने लिए खोल रहा हूँ और आनंद ले रहा हूँ
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