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आगे बढ़ने में दिक्कतें तो आती ही हैं , खासकर महिलाओं को । और ऐसे में ये पुरुषवादी सोच और दिक्कतें खड़ा करती है । माँ की गुमनामी के बहाने ये बखूबी दर्शाया है आपने । लेकिन इसे आप संक्षेप में कहते तो और प्रभावी होती । बहुत बहुत बधाई इस रचना के लिए आदरणीया ..
Dr.sandhya tiwari जी आप ने शुरू में बहुत विस्तार दे दिया. वरना लघुकथा जोरदार है. बस कुछ कसावट की कमी अखरती है .
बधाई आप को
//ये लीजिये आपकी चाय और आज का अखबार।
बाबू जी नहाने का पानी गरम हो गया है आपका
और हाँ माँ जी मैने पूजा की सारी तैयारी कर दी आप पूजा कर लीजिये ।
स्नेहा विजय तुम दोनो आओ नाश्ता लगा दिया है स्कूल नहीं जाना ।
कविता ने आवाज लगाई//
यह पंक्तियाँ अनावश्यक हैं जो लघुकथा को बोझिल कर रही हैं।
//"मम्मी को देखिये"// के बाद मम्मी की हालत के बारे में इशारा दिया जा सकता था। जैसे:
"मम्मी को देखिये" रसोई में पसीने से तरबतर माँ की तरफ इशारा करते हुए स्नेहा ने कहा।
बहरहाल, सन्देश सार्थक और सुन्दर है जिस हेतु हार्दिक बधाई स्वीकारें।
(पुन: स्मरण करवा रहा हूँ कि वार्तालाप/संवाद इनवर्टेड कॉंमास में ही लिखा करें। )
आदरणीय संध्या जी, बहुत ही गंभीर विषय को उठाया है, जिस हेतु बधाई स्वीकार करें| आदरणीय गुरूजी योगराज जी सर के सुझाव अनुसार लघुकथा को बदल दें तो यह उत्कृष्ट हो जायेगी !!
तो क्या एक कुशल गृहणी होना गुमनाम होना है ? लघुकथा अच्छी है शिल्प पर गुणीजनों ने महत्वपूर्ण तथ्य साझा किये हैं, बधाई आदरणीया डॉ संध्या तिवारी जी.
सहभागिता हेतु बहुत बहुत बधाई डॉ० संध्या जी विद्वद जनों की बात संज्ञान में लीजिये ये बहुत बेहतरीन कहानी हो सकती है .
ये कैसी समझ तारी हो रही है अब की बच्चियों में ? मम्मियाँ गुमनाम ज़िन्दग़ी जीती हैं ? क्या घर-परिवार का संचालन इतना गया गुजरा काम समझा जाता है अब ? यह तो हुई लघुकथा के वैचारिक पक्ष पर बात
लघुकथा के शिल्प पर और काम करने की आवश्यकता है.. अन्य प्रकाशित हुई कथाओं को भी पढिये..
शुभ-शुभ
“नाजरीन! ये क्या हो रहा है?” मुस्तफ़ा अपनी पत्नी की तरफ याचना भरी निगाहों से ताकते हुए गिड़गिड़ाता है| कुछ जवाब न मिलने पर मुस्तफ़ा का स्वर और दीन हो जता है... “नाजरीन! नाजरीन!! तू कुछ बोलती क्यूँ नहीं... मै तेरा शौहर हूँ.. मुश्किल घड़ी में तू ही साथ छोड़ रही है.... ” नाजरीन बड़ी पसोपेश में थी चाहकर भी अपने पति के बचाव में कुछ बोल नहीं पाई.. उसी के आँखों के सामने दो कान्टेबल लगभग घसीटते हुए पुलिश-जीप की तरफ ले जा रहे थे..... “ चल हरामखोर लाकप मे तेरी अकल ठिकाने लगाता हूँ...” इस बार मुस्तफ़ा झुंझलाहट में चीख के बोला, “ नाजरीsssन !... तेरा शौहर न सही पर इन बच्चों के बाप के खातिर मुझे बचा ले|” “ आज सुबह का शौहर और पिता कल साम को क्या था ?” ... इन दिनो मुस्तफ़ा नट दारू की लत में पूरी तरह जकड़ा था| नियम से प्रतिदिन शराब पीकर रात को अपने ही घर मे हंगमा करता और बीबी बच्चों को पीटता, इस हंगामे से मुहल्ले वाले भी परेशान थे| इस घटना के पिछ्ली साम पानी नाक से ऊपर चढ़ गया| दारू के नशे में धुत मुस्तफ़ा नाजरीन के गहने छिनने लगा विरोध करने पर चूल्हे पर रखी सब्जी के पतीले को माँ-बेटी के ऊपर फैक दिया जिनसे उनका सरा जिस्म झुलस गया, दोनो छोटे बच्चे मदत के लिये मुहल्ले मे गुहार लगने लगे| पड़ोसियों से बरदास्त नहीं हुआ तो पुलिश को सूचित कर दिये थे..... इधर नाजरीन खुद के जवाब पर हैरान थी कि, ये मैं क्या बोल बैठी.... घर के बाहर नीम से टेक लिये हुए आँख से ओझल होते जीप को निहारती रही......
बढ़िया प्रयास है आदरणीय शरद सिंह विनोद जी । कुछ त्रुटियाँ हैं जिन्हे सुधार लें । इस लघुकथा को संक्षेप में कहते तो और प्रभावी होती , बधाई और शुभकामनायें..
विजय जी .. बधाई व सुझाव के लिए साभार धन्यवाद
अच्छी कथा तनिक गठन की मांग कर रही है साथ ही टंकण की त्रुटियाँ खटक रहीं हैं, बधाई इस प्रयास पर आदरणीय शरद सिंह जी.
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