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इस मंच पर हम सभी अभ्यासी हैं और समवेत सीख रहे हैं, इस स्नेह हेतु हार्दिक आभार।
आदरणीय योगराज भाईजी
जिस व्यक्ति के आगे पीछे कोई नहीं उसे सारा संसार अपना लगता है। जाति संप्रदाय और देश काल से ऊपर उठ जाता है। स्वभाव और चरित्र भी संतों जैसा परोपकारी हो जाता है । स्वयं का सुख दुख इनके लिए महत्वहीन है।
हार्दिक बधाई इस सुंदर भावपूर्ण लघु कथा पर ।
आपकी प्रेरक प्रतिक्रिया से कलम को हौसला मिला है! हृदयतल से सादर आभार मान्यवर।
//अब तो भाई मैं कहीं का भी नहीं//
वाह वाह, बस एक छोटी सी पक्ति और लघुकथा को एकाएक उंचाई मिल जाती, कमाल है गुरुदेव, कथ्य और शिल्प देखते बनता है, बस दिल से एक बात निकलती है, "यह होती है लघुकथा"
बहुत बहुत बधाई आदरणीय गुरुदेव योगराज प्रभाकर जी.
यह सब इस मंच की ही काया माया है भाई गणेश बागी जी। इस अकिंचन की तुच्छ सी रचना पर आपकी प्रशंसा मेरे लिए अमूल्य है। दिल से शुक्रिया।
आदरणीय योगराज जी,
दोनो पिताओं के दर्द को बखुबी उभार है आपने. एक पिता जिसने अपना बेटा खो दिया है उसके लिये इस पार या उस पार का कोई मतलब नहीं है.//मेरा इकलौता जवान बेटा जा चुका है। अब तो भाई मैं कहीं का भी नहीं।" //
लेकिन दूसरा पिता, अपने बेटे के बचने के बाद वापस इस पार या उस पार का खेल ले कर बैठ गया.
//वैसे आप हैं कहाँ के ? इस तरफ के या उस तरफ के ?"//
सादर.
रचना का मर्म समझकर उसे सराहने के लिए ह्रदयतल से आभार अनुज शुभ्रांशु जी।
"मेरे बुढ़ापे का सहारा, मेरा इकलौता जवान बेटा जा चुका है। अब तो भाई मैं कहीं का भी नहीं।"
-इस अंतिम वाक्य ने भावुक कर दिया| कहानी उस कहावत पर खरी उतरती है ...घायल की गति घायल जाने ..चोट के दर्द को वही जान सकता है जिसने वैसी ही चोट खाई हो ..बहुत सशक्त लघु कथा विषय से न्याय करती हुई दिल से बहुत बहुत बधाई आ० योगराज जी |
ओबिओ पर आज ही फुर्सत में आना हुआ कई दिनों से बस ट्रेन में ही घूम रही हूँ ...रिश्तेदारी में कहीं ख़ुशी कहीं गम शेयर करती हुई,कल रात ही दून पँहुची हूँ
मेरी रचना के संदर्भ में व्यक्त आपके प्रशंसा के उदगार मेरे लिये अतीव मनोग्राही हैं आ0 राजेश कुमारी जी, हार्दिक आभार।
रचना पसंद करने के लिए आपका हार्दिक आभार भाई श्री सुनील जी।
एक तो पुत्र खोने का दर्द और वह भी बुढापे का सहारा, फिर फ़रिश्ता कोई हो इधर का या उधर का | बेहद मार्मिक लघु कथा |
बहुत खूब आदरणीय श्री योगराज भाई जी
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