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शायद आप पिता पुत्र के प्यार की बुनियाद की बात करना चाह रहे हैं , माता पिता के प्यार की बुनियाद में हमेशा समर्पण ही होता है , जो आपने इस कहानी में दिखाया है Iबहुत गहरे भाव लिए है ये कहानी , बधाई आपको सुधीर जी
जी !! आपने कथा के मर्म को समझा .. हार्दिक आभार आ. प्रतिभा पांडे जी
बहुत ही मार्मिक लघु कथा है जो कहना चाह रही है की बाप जाते जाते बेटे के भविष्य की बुनियाद रख रहा है
बहुत बहुत बधाई आ० सुधीर द्विवेदी जी
हार्दिक आभार आ. राजेश कुमारी जी | सादर
अंतिम पंक्ति एक ऐसा सच है जिसे कई सारे बीमार पिता चाहते हैं| कई लोगों पर गुजरी है, मैनें स्वयं कई जगह महसूस किया है| बधाई सुधीर जी, बढ़िया लघुकथा कही है| कांता जी की बात से मैं भी इत्तेफाक रखता हूँ कि अनुकम्पा नियुक्ति अकर्मण्यता को बढ़ावा देती है, फिर भी हमारे देश में यह समाप्त नहीं हुआ है, अधिकतर बीमार पिता चाहते हैं कि उनके स्थान पर उनके बेटे की नियुकित हो जाए|
भाई सुधीर द्विवेदी जी, लघुकथा बेहद अच्छी हुई है। किन्तु यह प्रदत्त विषय के आस पास भी नहीं है। बहरहाल, सहभागिता हेतु अभिनन्दन स्वीकारें।
बेटे के भविष्य की बुनियाद के लिए एक पिता अपनी साँसों को दफन करना चाहता है येही कहना चाहा था इस कथा के माध्यम से " परन्तु आपके कथनानुसार ही "लघुकथा का संदेश स्पष्ट होना चाहिए| " जो नहीं हुआ लगता है | समीक्षा हेतु हार्दिक आभार सर जी |
आदरणीय सुधीर जी, यक़ीनन आपने शानदार कथानक चुना है ... बस एक विडम्बना को बुनियाद बनाने लिए जरुरी छौंक नहीं लग पाई इसलिए ये दुखांत सोचने के लिए विवश करने से पहले ठेस पहुंचाता है. सादर
(बुनियाद विषयाधारित ) (पुन: प्रयास )
कार्डियोग्राम की स्क्रीन में दिख रही रेखा धीरे –धीरे सपाट होती जा रही थी|” पेशेन्ट आखिर रिस्पोंस क्यों नहीं कर रहा ?” परेशान डॉक्टर आपस में बात करने लगे |
“ पापा ओ पापा ....” बेटे की पुकार सुन मिश्रा जी ने धीरे से आँखे खोली | पूरा जोर लगाने पर भी मिश्रा जी के कांपते होठों से कुछ शब्द निकल पाए “ तेरा भविष्य बन जाएगा बेटा.. , सिर्फ दो सप्ताह ही तो बचे है मेरे रिटायरमेंट को “
“पापा बचपन से ही ही आपको जूझते देखता आया हूँ | आपकी वही जिजीविषा मेरे हौसले की बुनियाद रही है | अगर आप ही .. तो मै कहीं ..” मिश्रा जी के ठंडे हाथो को अपने हाथो के बीच रख स्नेह की ऊष्मा भरते हुए बेटे का स्वर काँप उठा |
पिता और पुत्र की प्रेमाश्रुओ से पुष्ट हो कार्डियोग्राम की रेखा सहसा अब कई वक्र बनाने लगी थी |
(मौलिक व् अप्रकाशित )
एक मरते हुए पिता के मन में अंतिम समय भी अपने बेटे के भविष्य की चिंता व स्वयं के जीवन की लालसा की अपेक्षा बेटे को नौकरी मिल जाने का सपना। बहुत खूब आ. सुधीर द्विवेदी जी।
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