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ग़ज़ल :- "ग़ालिब" से माज़रत के साथ

फ़ाइलातुन मफ़ाइलुन फ़ेलुन/फ़इलुन

इस तरफ़ भूल कर नहीं आती
ये ख़ुशी मेरे घर नहीं आती

आप रूठे हुए हैं जिस दिन से
"कोई उम्मीद बर नहीं आती"

बच निकलने की,ज़िन्दगी तुझसे
"कोई सूरत नज़र नहीं आती"

"मौत का एक दिन मुअय्यन है"
वक़्त से पैशतर नहीं आती

दिन में सोते हैं और पूछते हैं ?
"नींद क्यूँ रात भर नहीं आती"

देख लेती थी जो पस-ए-दीवार
वो नज़र,अब नज़र नहीं आती

"काबा किस मुंह से जाओगे",बोलो
शर्म तुमको "समर" नहीं आती

"समर कबीर"
मौलिक/अप्रकाशित

Views: 564

Comment

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Comment by Samar kabeer on August 2, 2015 at 11:04pm
जनाब डॉ आशुतोष मिश्रा जी,आदाब,ग़ज़ल में शिर्कत और सुख़न नवाज़ी के लिये आपका तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ ।
Comment by Samar kabeer on August 2, 2015 at 11:02pm
जनाब रवि शुक्ल जी,आदाब,ग़ज़ल में शिर्कत और सुख़न नवाज़ी के लिये आपका तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ ।
Comment by Samar kabeer on August 2, 2015 at 11:01pm
जनाब सुशील सरना जी,आदाब,ग़ज़ल में शिर्कत और सुख़न नवाज़ी के लिये आपका तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ ।
Comment by Samar kabeer on August 2, 2015 at 11:00pm
जनाब राहुल डांगी जी,आदाब,ग़ज़ल में शिर्कत और सुख़न नवाज़ी के लिये आपका तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ ।
Comment by Samar kabeer on August 2, 2015 at 10:59pm
जनाब मिथिलेश वामनकर जी,आदाब,ग़ज़ल में शिर्कत और सुख़न नवाज़ी के लिये आपका तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ ।
Comment by Dr Ashutosh Mishra on August 1, 2015 at 2:58pm

आदरणीय समर जी आपकी ग़ज़ले बेहद उम्दा होती हैं प्रस्तुत ग़ज़ल में बड़ी ही सहजता से बहुत कुछ कहा गया है .मौत का एक दिन मुअय्यन है"
वक़्त से पैशतर नहीं आती

दिन में सोते हैं और पूछते हैं ?
"नींद क्यूँ रात भर नहीं आती"

ये दो शेर इस ग़ज़ल के मेरे पसंदीदा शेर हैं 

.इस ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई सादर 

Comment by Ravi Shukla on July 30, 2015 at 2:21pm

आरणीय समर कबीर साहब

हर शेर पर बरबस ही वाह वाह निकल रही है

क्‍या खूब ग़ालिब साहब के मिसरो का इ्रस्‍तेमाल किया है

दिली दाद कुबूल कीजिये

Comment by Sushil Sarna on July 30, 2015 at 1:36pm

"मौत का एक दिन मुअय्यन है"
वक़्त से पैशतर नहीं आती

वाह इन खूबसूरत अहसासों से लबरेज़ इस ग़ज़ल के हर शे'र के लिए दिली दाद कबूल फरमाएं आदरणीय समर कबीर साहिब।

Comment by Rahul Dangi Panchal on July 29, 2015 at 10:53pm
वाह वाह आदरणीय हर शे'र हेतु दाद कबूल करें।
"काबा किस मुंह से जाओगे",बोलो
शर्म तुमको "समर" नहीं आती

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on July 29, 2015 at 10:02pm

वाह वाह वाह 

क्या खूब ग़ज़ल हुई है वाह वाह वाह 

आदरणीय समर कबीर जी, अभिभूत हो रहा हूँ इन चार अशआर को पढ़ कर 

आप रूठे हुए हैं जिस दिन से
"कोई उम्मीद बर नहीं आती"

बच निकलने की,ज़िन्दगी तुझसे
"कोई सूरत नज़र नहीं आती"

"मौत का एक दिन मुअय्यन है"
वक़्त से पैशतर* नहीं आती                           *पहले 

दिन में सोते हैं और पूछते हैं ?
"नींद क्यूँ रात भर नहीं आती"

इस आनंद को शब्दों में बयाँ नहीं कर सकता हूँ. अशआर ऐसे हुए है जैसे  दुआयें कुबूल हो गई है .... 

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