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आशियाना ढूंढते हैं

गजलनुमा कविता(मनन कु. सिंह)
हम बस महज इक आशियाना ढूँढते हैं,
तुम्हें लगा बात करने का बहाना ढूँढ़ते हैं।
उब चुके कबके थे मकां तेरे रहते-रहते,
अब बस इक घर का ताना-बाना ढूँढ़ते हैं।
बिन पत्तों की छाँव में कहते होता क्या,
हम तो पतझड़ में गुजरा जमाना ढूँढ़तेे हैं।
टूटे तारों से कहते क्या रिश्ता है धुन का,
हम तो उनमें छूटा हुआ तराना ढूँढ़ते हैं।
साँसें टँगी हैं मेरी, फिर आरजू है बाकी,
हम तेरी साँसों का आना-जाना ढूँढ़ते हैं।
सो गया जहाँ सारे पन्ने पलट-पलट के,
हम उन पन्नों में अपना फ़साना ढूंढते हैं।
'मौलिक व अप्रकाशित'@मनन

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Comment by Manan Kumar singh on August 14, 2015 at 8:02pm
प्रेरणा प्रदान करने हेतु सभी आदरणीय मित्रों का आभार।
Comment by Manan Kumar singh on June 2, 2015 at 10:44am

आ। गोपाल जी, आशुतोष जी ! आभार आपका। 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on June 1, 2015 at 2:23pm

इस सुंदर रचना के लिए हार्दिक बधाई सादर

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 1, 2015 at 12:03pm

अच्छे रचना हुयी है . सादर .

Comment by Manan Kumar singh on May 31, 2015 at 1:59pm
सभी आदरणीय मित्रों को बहुत-बहुत धन्यवाद
Comment by वीनस केसरी on May 31, 2015 at 12:27pm

सुन्दर ग़ज़लनुमा कविता हुई है
इस प्रस्तुति के लिए बधाई

Comment by Shyam Narain Verma on May 30, 2015 at 4:18pm
इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई
Comment by narendrasinh chauhan on May 30, 2015 at 1:10pm

खूब सुन्दर कविता के लिए बधाई

Comment by Samar kabeer on May 30, 2015 at 10:58am
जनाब मनन कुमार सिंह जी,आदाब,सुन्दर प्रस्तुति हेतु बधाई स्वीकार करें ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on May 29, 2015 at 11:31pm

आपको दादनुमा बधाई 

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