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आदरणीय ओमप्रकाश जी हार्दिक बधाई,आपकी लघुकथा ने नेताओं की कथनी और करनी की मानसिकता को बखूबी परिभाषित कर दिया!साथ ही राजनीति में व्याप्त गला काट स्पर्धा को भी सुन्दर तरीके से उजागर किया है!बहुत बहुत बधाई!
आ तेज वीर सिंह जी आप का कहना सही है . राजनीति में कथनी और करनी में व्याप्त अंतर होता है. यही इस में उजागर किया गया है. आभार आप का .
आदरणीया अर्चना जी आप के इस समर्थन के लिए आभार.
स्थान व प्रयोजन देखकर बदलती न्याय की परिभाषा का सुन्दर व उदारता से परिचय कराया है आ. ओमप्रकाश जी लघुकथा के माध्यम से आपने । मेरी बधाई स्वीकार करें।
आदरणीया नीरज शर्मा जी आप को लघुकथा में निहित भाव पसंद आए. शुक्रिया.
राजनीति के कुटिल दांवपेंच जग जाहिर हैं बहुत बढ़िया कलई खोली है ऐसे राजनीतिज्ञों की प्रदत्त विषय पर बढ़िया कटाक्ष करती हुई इस प्रस्तुति के लिए दिल से बधाई लीजिये आ ० ओम प्रकाश क्षत्रिय जी |
वाह !
मत्स्य न्याय, वक न्याय, वन न्याय.. इन सभी ’न्यायों’ के परिप्रेक्ष्य में आमजन की सोच किंकर्तव्यविमूढ़ता की पर्याय ! :-))
आपकी कथा का पात्र उस नेता के कितना निकट है यह तो पारस्परिक संवादों से ज़ाहिर है लेकिन सारा कुछ तार्किकता की कसौटी पर अटक जाता है. फिर भे ऐसा कोई कौतुक स्वीकार्य है. ऐसी परिस्थितियाँ पैदा कर ही कई विद्रूपताओं को समक्ष किया जा सकता है
आदरणीय ओमप्रकाश जी, आपकी इस लघुकथा में नाटकीयता तनिक आरोपित है, किन्तु यह आरोपण उद्येश्यपरक है. यही इस लघुकथा की प्रासंगिकता को सार्थक बनाता हुआ है.
प्रस्तुति एवं सहभागित हेतु हार्दिक शुभकामनाएँ
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